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जौनपुर का इतिहास



जौनपुर को फिरोज शाह तुगलक ने सन् 1361 ई. में अपने चचरे भाई मुहम्म्द पुत्र तुगलक उर्फ जूना खंा के नाम पर बसाया और दुर्ग का निर्माण किया ताकि बंगाल तथा दिल्ली में शान्ति बनाये रखने में आसानी हो। जौनपुर बंगाल तथा दिल्ली के मध्य में स्थित है।
जौनपुर गोमती तट पर मुगलसराय नामक प्रसिद्ध रेलवे जंक्शन से उत्तर की ओर सैंतालिस मील तथा लखनऊ से एक सौ इकसठ मील की दूरी पर स्थित है। यह नगर चौदहवीं शताब्दी में फिरोज शाह के बसाये हुये नगरों में सबसे अधिक महत्व रखता है यह वाराणसी कश्मीरी के उत्तरी पश्चिमी भाग में स्थित है। इसके पश्चिम में प्रतापगढ़ तथा इलाहाबाद, पूर्व में गाजीपुर तथा आजमगढ़, उत्तर में सुल्तानपुर और दक्षिण में वाराणसी तथा मिर्जापुर स्थित है। ऐतिहासिक दृष्णिकोण से जिला प्रतापगढ़ के 15 गांव जिनका क्षेत्रफल साढ़े 16 वर्ग मीह है तहसील मछलीशहर के अन्दर पंवारा क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध है इसी प्रकार उत्तर और पश्चिम कोण में तहसील शाहगंज के 24 ग्राम जिनका क्षेत्रफल 12 वर्ग मील है प्रतापगढ़ और सुल्तानपुर के मध्य जौनपुर के बाहर परगना चांदा में सम्मिलित है और सुल्तानपुर के 2 गांव पहाड़ पट्टी और ताउद्दीन पुर तहसील शाहगंज में है। लम्बाई पूर्व से पश्चिम तक 56 मील और चौड़ाई दक्षिण तक 53 मील है। कुल क्षेत्रफल 991876 एकड़ या 15490 वर्ग मील या दूसरे लेखकों के अनुसार 1555 वर्ग मील है। इनकी जनसंख्या 17,0000 के बराबर है।
जब रेलगाड़ी जफराबाद से आते समय उत्तर तथा मेहरावां से आते समय दक्षिण की ओर चले तो एक बिखरी हुई आबादी के फैले हुये शहर का दृश्य दीख पड़ता है जिसके खंडहर, उजड़े हुये मुहल्ले धराशायी भवन, इस बात की ओर संकेत करते है कि कमी यह नगर भी वैभव तथा सौन्दर्य की दृष्टि से अद्वितीय रहा होगा।
शर्की बादशाहों के शासन कला में जौनपुर उन्नति की चरम सीमा पर पहुंच चुका था। पन्द्रवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जौनपुर के दो बड़े सुन्दर अवसर प्राप्त हुये जिनका विवरण निम्न प्रकार है -

1. दिल्ली पर तैमूर का आक्रमण
    उस समय पूरे देश में अराजकता फैली हुयी थी तुगलक राज की कमर टूट चुकी थी सन् 1393 ई. महमूद शाह तुगलक ने ख्वाजा जहां मलिक सरवर को मलिकुश्शर्क की पदवी प्रदान कर विद्रोहियों के दमन के लिये भेजा। इसने विद्रोह दमन करने के बाद दिल्ली से अलग होकर अपना एक स्वतंत्र राज्य। ‘शर्की शासन’ के नाम से स्थापित कर लिया और जौनपुर को राजधानी घोषित कर नायाब अताबिके आजम की पदवी धारण करते हुये जौनपुर का बादशाह बन बैठा।
    जौनपुर अपनी विशेष स्थिति के कारण पूर्वी सीमा की सुरक्षित दीवार समझा जाता था। यही कारण था कि ख्वाजा जहां ने इस अपने राज्य का केन्द्रीय स्थान घोषित किया।

2. दूसरा अवसर इब्राहीम शाह के बादशाह हो जाने पर प्राप्त हुआ। इब्राहिम शाह ने सन् 1402 ई. से सन् 1444 ई. तक बड़े वैभव पूर्ण ढं़ग से राज्य किया। इतिहासकारों ने इस बादशाह को बहुत बड़ा विद्वान तथा न्यायिक शासक बताया है। इसने प्रजा के सुख तथा शान्ति के लिये नये-नये नियम तथा सिद्धांत बनाये। उसके देहान्त के पश्चात् उसके वंशज महमूद शाह, मुहम्म्द शाह तथा हुसेन शाह शर्की ने उन्हीं नियमों तथा पद्धतियों का अनुकरण करते हुये नये राज्य को सौ वर्षो तक चलाया।
    ‘‘पर्सी ब्राउन लिखता है कि शर्की वंशज के बादशाहों में सभी राजनैतिक गुण विद्यमान थे, उन्होंने बड़े-बड़े भवन निर्माण किये।  यह बात बड़ी प्रमुख है कि इन बादशाहों के बनवाये हुये सभी भवन जौनपुर में ही स्थित है।’’
    शर्की बादशाहों की योग्यता के कारण उत्तरी भारत में यह राज्य सबसे बड़ा राज्य समझा जाने लग था जिसकी नींव इब्राहिम शाह शर्की ने दृढ़ कर दी थी। इसकी सीमायें पश्चिम में कन्नौज तथा इटावा तक पूर्व में बिहार बंगाल तथा उड़ीसा तक, दक्षिण में विन्ध्याचल तक और उत्तर में नेपाल की सीमा तक फैली हुई थी।
डाक्टर ईश्वरी प्रसाद की राय
    ‘‘शर्की वंश का सबसे विराट सम्राट इब्राहिम शर्की हुआ। वह सन् 1402  में सिंहासन  पर बैठा था। यह बादशाह उच्चकोटि का विद्वान तथा निर्माण का बहुत प्रेमी था। शर्की बादशाह न्यायिक तथा विद्या प्रेमी थे। तैमूर के आक्रमण के समय दिल्ली से आये हुये विद्वानों तथा कलाकारों का शर्की सम्राट ने सहृदय स्वागत किया। इसका परिणाम यह हुआ कि जौनपुर विद्या एवं कला का एक प्रमुख केन्द्र बन गया और विद्वानों ने इसे शीराजे हिन्द की पदवीं से सम्मानित किया।’’
    इब्राहिम शाह तथा अन्य शर्की बादशाहों की विद्वत्ता एवं कुशल प्रशासन के कारण जौनपुर शीघ्र ही एक प्रमुख केन्द्र बन गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि जौनपुर को उन्नती की चरम सीमा पर पहुंचाने वाले वही लोग थे जिन्होंने इसे अपनी जन्म भूमि की संज्ञा दी। यह लोग अपनी योग्यता एवं कुशल व्यवहार के कारण उच्चकोटि के विद्वानों मेें गिने जाने लगे। सच पूछिये तो शीराजे हिन्द इन्ही की देन है। इसकी ख्याति इतनी बढ़ी की मिश्र, अरब, ईरान तथा अफगानिस्तान आदि से विद्यार्थीगण शिक्षा उपार्जन हेतु एकत्रित होने लगे। यदि जौनपुर के गौरवमय अतीत की झलक देखना चाहते हैं तो यहां पर मौजूद विशाल भवनों में मसजिद अटाला, बड़ी मसजिद, लाल दरवाजा, मसजिद खालिस मुखलिस, झझरी मसजिद, शाही किला और गोमती के शाही पुल का अवश्य अवलोकन करे। शर्की काल के निर्मित भवन जौनपुरी शिल्प का ज्वलन्त प्रमाण है, जिनकी अनुरुपता भारत में कहीं अन्यत्र लिना दुर्लभ है। यदि आपकों जौनपुर घूमने का अवसर मिले और आप दाये बायें देखें तो आपको बहुत से प्राचीन गुम्बज एवं मकबरे दीख पड़ेगें। इनमें शाहजादों बादशाहों, सेनापतियों, जर्नलों, राज्यपालों, मंत्रियों, सूबेदारों, सूफियों तथा अनेकों महान विभूतियों की समाधियों है। आज भी यह भवन अपने वैभवपूर्ण भूत की कथा सुना रहे हैं। इनको देखकर आत्मा सिहर उठती है कि मृत्यु के निर्मम हाथों ने इनकों भूमिसात् कर के मिट्टी का एक ढेर बना दिया है। दुःख उस समय और अधिक होता है जब इस बात का आभास मिलता है कि जौनपुर को शीराजे हिन्द बनाने वाले लोग है और इनके अंतिम विश्राम स्थान की इतनी दुर्दशा है। हजारों महान् आत्माओं की समाधियां टुट-फूट रही हैं। यहां तक कि लोग समाधियों तथा मकबरों की ईंटों को निकाल-निकाल कर अपने कार्यों में प्रयोग कर रहे हैं। न तो पुरातत्व विभाग को चिन्ता है न यहां के निवासियों को। दुःख तो इस बात का है कि चार पांच सौ वर्षों में इसका कभी भी जीर्णोद्धार नहीं हुआ। वर्तमान मकबरे भी कुछ दिनों में धराशायी हो जायेंगे और यह जौनपुर की एक अमिट दुर्घटना कही जायेगी।
    अब यह नगर टूटी-फूटी समाधियों, मकबरों, मसजिदों, गुम्बजों तथा अवशेषों का नगर होकर रह गया है और अपनी योग्य आत्माओं को, जिन्होनें इसमें चार चांद लगाया था। उन्हें शान्त एवं विवश सुप्त अवस्था में देख रहा है तथा यहां के लोगों की असावधानी पर आंसू बहा रहा है।
    शर्की शासन में विशेष रुप से इब्राहिम शाह शर्की के स्वर्ण युग में जौनपुर की कितना महत्वपूर्ण स्थान था, किस चरम सीमा पर आसीन था, उसकी सीमायें कहां तक फैली हुई थीं सिकन्दर लोदी के आक्रमण तथा उपद्रव ने इस पर पर्दा डाल दिया है। फिर भी कुछ पुस्तकों में इब्राहिम शाह के समय का चित्रण प्राप्त होता है।
    विद्यापति ने कीर्तिलता में इब्राहिम शाह तथा जौनपुर की ख्याति एवं रमणीक दृश्यों का चित्रण इस प्रकार किया है। पाठकों की सुविधा के लिये विद्यापति के लेख का अनुवाद नहीं अर्थ प्रस्तुत करके चौदहवीं शताब्दी लिखी गई हैं, वह विद्यापति की पुस्तक में मौजूद है।
    ‘‘जूनापुर नामक यह नगर आंखों में प्यारा तथा धन दौलत का भंडार था। (जौनपुर) देखने में सुन्दर तथा प्रत्येक दृष्टिकोण से सुसज्जित था। कुंओं तथा तालाबों का बाहुल्य था। पत्थरों का फर्श, पानी निकलने की भीतरी नालियां, कृषि, फल-फूल और पत्ती से हरी भरी लहलहाती हुई आम और जामुन के वृक्षों की अवलियां, भौरों की गंूज मन में मोल लेती थीं। गगनचुम्बी तथा मजबूत भवन थे। रास्ते में ऐसी-ऐसी गलियां थी कि बड़े-बड़े लोग रुक जाते थे। चमकदार लम्बे-लम्बे स्वर्ण कलश मूर्तियों आदि से सुसज्जित सैकड़ों शिवाले दीख पड़ते थे। कंवल के पत्तों जैसे-जैसे बड़े-बड़े नेत्रों वाली स्त्रियां जिन्हें पवन स्पर्श कर रहा था मौजूद थीं, जिनके लम्बे केश उसकी ध्रुव से बाते कर रहे थे। उनके नेत्रों में लगा हुआ काजल ऐसा दीख पड़ता था मानों चन्द्रमा के अन्दर एक दाग है। पान का बााजर, नानबाई की दुकान, मछली बाजार, यदि इन सभी वास्तविकताओं पर प्रकाश डाला जाय तो इस पर विश्वास होगा। व्यवसाय में लोग इतने व्यस्त थे कि हर समय एक जनसमूह उमड़ा रहता मानों जन-समुद्र अपना स्थान छोड़कर जौनपुर आ गया है।
    इस नगर की आबादी बहुत घनी थी। लाखों घोड़े तथा सहस्त्रों हाथी हर समय विद्यमान रहते। दोनों ओर सोने-चांदी की दूकानें थीं। उस समय सम्पूर्ण आबादी सिपाह, चाचकपुर, पुरानी बाजार, लाल दरवाजा, दरीबा तथा प्रेमराजपुर, आदि मुहल्लों की ओर थी। आज नगर में जहां-जहां खंडहर तथा कृषि क्षेत्र दीख पड़ रहे हैं, वे सब प्राचीनकाल में आबाद थे और वहां सुन्दर भवन तथा बाजार बने हुये थे। व्यवसायी लोग जौनपुर की ख्याति तथा ईब्राहिम शाह के स्वागत से इतने अधिक प्रभावित थे कि अपना सामान यहां बेचने के लिए आया करते। अटाला मसजिद से किला होते हुए सिपाह तक सेनायें रहती थीं। हाथी, घोड़े तथा खच्चर बांधे जाते थे। अटाला मसजिद के समीप विभिन्न प्रकार के सैनिक यन्त्र, ढाल तथा तलवारें बनती थी। यहां की ढालें विशेष रुप से प्रसिद्ध थीं और बाहर जाती थीं। यही कारण था कि यह मुहल्ला ढालगर टोले के नाम से प्रसिद्ध हो गया और अब तक वही नाम चला आ रहा है। विद्यापति ने उस समय की भीड़-भाड़ तथा क्रय-विक्रय का चित्रण इस प्रकार किया है। यहां भी केवल अर्थ प्रस्तुत किया जा रहा है।
    ‘‘दोपहर की भीड़ को देख कर यही ज्ञात होता था कि यहां सम्पूर्ण पृथ्वी की वस्तुएं बिकने के लिए आ गई हैं। मनुष्यों का सिर परस्पर टकराता था। एक के मस्तक का तिलक छूट कर दूसरे के मस्तक में लग जाया करता था।
    रास्ता चलने में महिलाओं की चूड़ियां टूट जाती थी। घोड़े तथा हाथियों की अपार भीड़ थी। प्रायः लोग पिस जाते थे। इन सुन्दर देवियों के बनाव सिंगार देखने वालों के दिल चूर-चूर हो रहे थे। इनके नेत्रों की माद्कता तथा चंचलपन को देखकर चेतना पर ऐसा ही प्रभाव पड़ता था जैसे कज्जल नदी की लहरों में बड़ी-बड़ी मछलियां तैर रही हों। लोगों की भीड़ देखकर ऐसा आभास होता था मानों समुद्र उमड़ पड़ा हो। बेचने वाले जो भी सामान लाते क्षण भर में बिक जाता था। प्रत्येक व्यक्ति कोई न कोई वस्तु अवश्य खरीदता। ब्राह्मण, कायस्थ, राजपूत तथा अन्य बहुत-सी जातियां ठसाठस भरी रहती थीं। सभी सज्जन एवं धनी थे। इब्राहिम शाह अपने महल के ऊपरी भाग में रहता था। अपने घर पर आये हुये अतिथियों को देखकर जिस प्रकार लोगों को प्रसन्नता होती है, उसी प्रकार बादशाह को होती थी।’’
    इसी प्रकार बहुत से बाजार थे। शाही महल खास हौज के समीप अमीरों के विराग गगन चुम्बी भवन थे। उस काल में सभी प्रसन्न तथा सम्पन्न थे। इब्राहिम शाह का प्रबन्ध इतना अच्छा था कि किसी को कोई चिन्ता न थी यह सब दृश्य देख कर लोग सुख का आभास प्राप्त करने थे। जौनपुर में प्रत्येक स्थान पर कीर्ति सिंह की सहायता के लिए असलम के विरुद्ध तिरहुत से प्रस्थान के समय इब्राहिम शाह की सेना का बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है। विवरण इस प्रकार है। यहां भी अर्थ प्रस्तुत है।
    ‘‘ सेना की संख्या कौन जाने। सैनिक पृथ्वी पर इस प्रकार बिखरे हुये थे जैसे कमल का फूल तालाब में बिखरा हुआ है। सारांश यह कि बादशाही फौज ने प्रस्थान का नक्कारा बजा दिया। सुल्तान इब्राहिम शाह की सेना बादशाह सहित रवाना हुई। भय के कारण पर्वत अपना स्थान छोड़ने लगे, पृथ्वी में कम्पन पैदा हो गई, सूर्य का मुख धूलि कणों के परदों में छिप गया। प्रत्येक ओर युद्ध के नगाड़े बजने लगे, मानों प्रलय आ गयी है। मनुष्यों की बाणी क्षीण पड़ गई। सेना ने पैदल चलकर नदी का पानी सुखा दिया।’’
    शर्की सेना में ब्राह्मणों तथा राजपूतों का बाहुल्य था। इब्राहीम शाह के शासन काल से लेकर हुसेन शाह के काल तक जितने युद्ध हुये उनमें इन्ही की संख्या अधिक थी। बादशाह के न्याय तथा प्रजा प्रति कुशल व्यवहार से प्रत्येक जाति तथा धर्म के लोग प्रसन्न थे और उन्हें बादशाह के प्रति बहुत विश्वास था।
    जब बादशाह किसी युद्ध पर जाने का निश्चय किया करते तो निकटवर्ती स्थानों के जमींदारों तथा जागीरदारों को सूचना दे दी जाती। वे लोग सिपाहियों को लेकर तथा हथियारों से सुसज्जित होकर अपना प्राण न्यौछावर करने के लिए चल खड़े होते। इब्राहिम शर्की, महमूद शाह, मुहम्मद शाह तथा हुसेन शाह सभी ने विद्या, कला तथा अन्य विभागों की ओर इतना अधिक ध्यान दिया कि अल्प-काल में जौनपुर अपने भवनों, मंदिरों, मसजिदों, मदरसों, खानकाहों, अलिमों सूफियों, ऋषियों, मुनियों, संतों तथा भक्तों के लिए अन्य देशों में अधिक प्रसिद्ध तथा अग्रणी हो गया।
    शर्की बादशाहों ने संगीत कला का भी संरक्षण किया। उनका दरबार कवियों तथा कलाकारों से सदैव भरा रहता। फलस्वरुप हुसेन शाह शर्की के काल में जौनपुर संगीत कला का केन्द्र बन गया था। बादशाह स्वयं नायक था। उसने अनेक राग तथा ख्याल का अविष्कार किया। शर्की काल में काव्य, साहित्य, संगीत तथा सुलेख कला में जौनपुर का विशेष स्थान था।
    जौनपुर तथा उत्तरी भारत में शर्की काल के शिला लेख अपनी कला की दृष्टिकोण से सम्पूर्ण भारत में अद्वितीय हैं। उनके चित्र पाठक सुलेख कला के अध्यन के समय देख सकते हैं।
    जौनपुर एक ऐसा स्थान है कि इसके चारों ओर बनारस, मिर्जापुर, प्रयाग, अयोध्या तथा फैजाबाद हिन्दुओं के तीर्थ स्थान हैं। यहां पर शहर आबाद होने के पूर्व श्रीरामचन्द्र जी करारबीर के दमन हेतु आ चुके थे। यह वह पवित्र स्थान है कि इसके आबाद होने से पूर्व यहां यमदग्नि ऋषि, कोठियावीर, परसुराम जी आदि ऋषि मुनि नदी के किनारे रहते थे। जौनपुर प्रत्येक दृष्टिकोण से प्रमुख रहा है।
    प्राचीन काल में फीरोज शाह तुगलक ने आबाद करने से पूर्व यहां अधिकतर भर जाति के लोग रहते थे तथा उन्हीं का शासन था। जौनपुर एक लम्बी अवधि तक अफगान तथा मुगल बादशाहों का निवास स्थान रहा है। यहीं पर अटाला मसजिद में कई वर्ष तक शेर शाह सूरी ने शिक्षा प्राप्त की है। विशेष रुप से अकबर के शासन काल में यहां इसलामी राज्य स्थापित था। जब तक इलाहाबाद का किला नहीं निर्मित हुआ था तब तक अकबर जौनपुर के दुर्ग में दरबार करता था और इसे इसलामी विद्या एवं कला का प्रमुख केन्द्र समझता था। यों तो अनेक नगरों के पतन की घटना बड़ी ही आश्चर्यजनक है। जो अत्याचार यहां के निवासियों तथा भवनों के प्रति किये गये उसका उदाहरण किसी अन्य क्षेत्रों में सुनने में नहीं आता। यही कारण है कि इस नगर का प्राचीन वैभव बिल्कुल नष्ट हो गया। कुछ अवशेषों के अतिरिक्त सभी स्मृतियां मिट्टी में मिल गई। शाहजहां बादशाह इसे बड़े गौरव पूर्ण स्वर में पूर्व का शीराज कहा करता था। उसने विद्वानों तथा कलाकारों का बड़ा आदर सत्कार किया। जिसका परिणाम यह हुआ कि खानकाहों तथा मदरसों की संख्या पुनः बढ़ गई।
    जौनपुर के इतिहास की सबसे बड़ी प्रमुखता यह रही कि यह राजनीति का सदैव अड्डा रहा। यहां के निवासियों को कभी भी सुख तथा शान्ति नहीं मिल पाई। मुसलमानों के आगमन तथा यहां की मूल आबादी में मिलने-जुलने के बाद यहां एक विशेष वर्ग की उन्नती शर्की राज्य तथा इसके कुछ पूर्व ही आरम्भ हो चुकी थी। इसके संबंध में प्रोफेसर अली मेंहदी खां इलाहाबाद विश्वविद्यालय ने ‘मुल्ला महमूद’ नामक रचना में इस प्रकार चित्र खींचा है।
    ‘‘सूफी, विद्वान तथा विद्यार्थी नगर के विभिन्न क्षेत्रों में एकान्तमय जीवन व्यतीत कर रहे थे। इनमें अधिकतर ऐसे लोग थे जो इराक अरब तथ ईरान से आकर भारत में बस गये थे। यहां पहुंच कर उन्हें शिक्षा उपार्जन का एक शुभ अवसर प्राप्त हुआ। इससे प्रकट होता है कि जौनपुर में निवास करना इन लोगों ने इसलिए अच्छा समझा होता है कि जौनपुर में निवास करना इन लोगों ने इसलिए अच्छा समझा कि ये लोग बादशाहों तथा दरबारों की हाजिरी और उनके सहयोगियों का विरोध, करने के बजाय शान्तिमय जीवन व्यतीत करने तथा एक विद्वान के समान जीवन व्यतीत करना अच्छा समते थे वे लोग ऐ क्षेत्र में रहकर जीवन व्यतीत करना चाहते थे जो हर प्रकार के पक्षपात तथा साम्प्रादायिकता से दूर हो, निसन्देह वह स्थान जौनपुर ही था।’’
    इन उपर्युक्त कारणों से जौनपुर के निवासी दो भागों में विभाजित हो गये थे। एक तो वह वर्ग था जो बादशाहों के साथ युद्ध में सम्मिलित होता था और स्थायी रुप से शासन की दृष्टि में खटका बना रहता साथ ही साथ सूबेदारी के मार्ग में विघ्न सिद्ध होता। दूसरा वर्ग उलमा (विद्वानों) का था। इन उलमा के सम्बन्ध में कुछ पुस्तकों तथा कथाओं से पता चलता है कि एक लम्बी अवधि बीत जाने पर भी इतनी अधिक समाधियों एवं मकबरों को देखकर यह विश्वास हो जाता है कि यहां चौदह सौ पालकियां एक साघ्थ निकला करती थीं। लोग जुमा या दोनों ईद के समय इनका दर्शन किया करते थे। ये विद्वान लोग सिवाय शिक्षा-दीक्षा तथा खानकाहों में अनुयायियों तथा प्रशिक्षण एवं उपासना तथा तपस्या के राजनैतिक बातों में किसी भी दृष्टि से कोई भाग नहीं लेते थे और न तो किसी राजनैतिक बातों में किसी भी दृष्टि से कोई भाग नहीं लेते थे और न तो किसी राजनैतिक वर्ग से इनका संबंध ही था। यही कारण है कि शर्की काल के बाद जितने शासक आये सब ने इनका आदर किया। इनकी सुभिता तथा भोजन आदि आवश्यकताओं की पूर्ति के जौनपुर तथा दिल्ली से वजीफे तथा जागीरें निश्चित थीं। उलमा का शिक्षा का क्षेत्र में इतना ऊंचा स्थान था कि भारत ही में नहीं बल्कि संसार में अनेक क्षेत्रों के लोग इनकी योग्यता का लोहा मानते तथा इनका आदर करते थे। इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि जब कभी इन्होंने बड़े से बड़े बादशाहों के समय अपने विचारों का आदान-प्रदान करना चाहा तो कोई बड़ी से बड़ी शक्ति भी इन्हें रोक नहीं सकी।
    इन उलमा की अधिकतर संख्या विशेष रुप से शर्की बादशाहों के समय में विभिन्न स्थानों से आकर जौनपुर में आबाद हुई। उसकी समय से जौनपुर शीराजे हिन्द के नाम से प्रसिद्ध हो गया और स्थायी रुप से यही आबाद हो गया। यही विद्वान, फकीर तथा सूफी जौनपुर के स्वतंत्र शर्की राज्य के कर्णधार थे, जिनके समक्ष दूर-दूर से विद्यार्थीगण आकर शिक्षा प्राप्त करते थे। यही जौनपुर के उलमा थे जिन्होंने विद्या-दीप बंगाल, गुजरात, हैदराबाद तथा अवध में ज्योतित किया। यहां पर सैकड़ों मदरसे तथा खानकाहें खुल गई। जिनकी देख-रेख शासन की ओर से होती थी। यह क्रम मुगल शासन की समाप्ति के बाद तक भी स्थापित रहा। इस संबंध में सैयद रियासत अली नदवी ने अपने विचारों को इस प्रकार व्यक्त किया है-
    ‘‘शर्की शासन काल में जौनपुर नगर दारुस्सोरुर शीराजे हिन्द’’ कहा जाता था। मुल्ला मुहम्म्द असफहानी सैरुल मुलूक का कथन है कि यहां सैकड़ों मदरसे, खानकाहें तथा मसजिदें निर्मित हुई। उलमा तथा सूफी दूर-दूर के देशों से आये जिनके जिये वजीफे तथा जगीरें नियुक्त हुई। जौनपुर का स्थान शिक्षा-दीक्षा के क्षेत्र में मुगलों के समय तक बड़ा प्रमुख रहा। शाहजहां बादशाह के शासन काल में अजमदाबाद, दिल्ली, जौनपुर शिक्षा-दीक्षा के ऐसे केन्द्र थे कि भारत के बाहर हेरात, बदख्शां सेे लोग शिक्षा उपार्जन के लिये आया करते थे। उस काल में विद्वानों की शिक्षा-दीक्षा का चारों ओर बड़ी चर्चा थी। उनके मदरसे पठन-पाठन के लिए एशिया में प्रसिद्ध थे।’’
    मुगलों से आरम्भ काल से आलमगीर के शासन काल तक शिक्षा प्रसार के संबंध में सम्राटों तथा शासन के कर्णधारों का विशेष ध्यान रहा। उसका प्रभाव यह हुआ कि भारत के विभिन्न प्रान्तों अर्थात गुजरात, दिल्ली, आगरा, बिहार, जौनपुर तथा इलाहाबाद विभिन्न कालों में विद्या केन्द्र बने रहे। जौनपुर में मुल्ला जीवन, काजी शहाबुद्दीन, मोइनुद्दीन, हक्काक, मुल्ला महमूद, मुल्ला अफजल तथा दीवाना अब्दुर्रशीद के मदरसों की बड़ी ख्याति रही। इन मदरसों पर सम्राट की विशेष कृपा दृष्टि रहती थी।
    मुगलों के अन्तिम काल तक जौनपुर में मदरसों तथा खानकाहों की अधिकता रही। इस काल में उलमा को जागरी तथा वजीफे के संबंध में अनेक आज्ञा पत्र प्रदान किये गये। इन आज्ञा पत्रों को म्ें स्वयं देख चुका हूं जिनका चित्र दिया गया है। मौलवी गुलाम अली आजाद ने (सुबहतुल मरजान) नामक पुस्तक में इस युग के शैक्षिक रफ्तार का चित्रण बड़े प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया है, जो फारसी में है। पाठक की कठिनाइयों के कारण यहां उसका अनुवाद किया जा रहा है।
    यहां तक कि बुरहानुल मुल्क सआदम खां नेशापुरी मुहम्मद शाह के गद्दी पर बैठने के आरम्भिक काल में प्रान्तों तथा बड़े-बड़े नगरों के जैसे अवध इलाहाबाद, दारुस्सोरुर जौनपुर, गाजीपुर, तथा कोड़ा जहानाबाद का प्रशासक हो गया। सभी नवीन एवं प्राचीन वजीफों को बन्द करके वहां के लोगों को शिक्षा उपार्जन से रोककर सैनिक शिक्षा में लगा दिया। अब शिक्षा दीक्षा का पूर्व की भांति प्रचलन न रहा। वे मदरसे जो प्राचीन काल में विद्या के स्त्रोत थे सब के सब वीरान हो गये।
    जौनपुर के शिक्षा प्रसार तथा शर्की राज्य की उन्नति तथा ख्याति का सेहरा इन्हीं आलिमों तथा सूफियों के सिर है जो विभिन्न स्थानों से आकर यहां आबाद हो गये थे। यदि आप इतिहास का अध्ययन करें तो आपकों ज्ञात हो जायेगा कि शर्की राज्य की उन्नति और यहां के अद्वितीय भवनों का अस्तित्व वास्तव में इब्राहिम शाह शर्की की संरक्षता तथा अमीर तैमूर के आक्रमण के बाद यहां आये हुये उलमा के प्रति उसके व्यवहार का परिणााम है। प्रोफेसर अली मेंहदी खां मुल्ला ‘महम्म्द’ में बड़े पते की बात कही है।
    ‘‘जौनपुर विद्या का केन्द्र नहीं बल्कि विद्वानों तथा कलाकारों का केन्द्र था। ये या इनके पूर्वज तथा गुरु अधिकतर ऐसे थे जिन्होंने अरब, ईराक, ईरान तथा अन्य स्थानों पर पूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्थायी रुप से जौनपुर में आबाद होने के लिए आ गये थे। इसलिए हम बिना किसी झिझक के कह सकते हैं कि जौनपुर की सभ्यता वास्तव में सम्पूर्ण भारत की सभ्यता का सम्मिश्रण थी।’’
    सिकन्दर लोदी की विनाश लीला ने जौनपुर की उन्नति को तहस-नहस कर डाला। इस बात को कहते हुये बड़ा दुख होता ह कि जौनपुर के प्राचीन चिन्हों, मदरसों, खानकाहों, को कायम रखने में यहां तक के लोगों तथा उलमा के विशेष ध्यान नहीं दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि विशाल खानकाहें, मदरसे, गुम्बद, मीनार, समाधियां तथा मसजिदें धराशायी हो गई। यहां के विद्वानों ने जो रचनाएं की थीं वह कीड़ों की भेंट हो गई। कभी किसी ने एक पुस्तक भी प्रकाशित करने की इच्छा पैदा न हुई और न तो इस विशाल नगर का जो कभी शीराजे हिन्द कहलाता था, इतिहास ही लिखने का कष्ट किया। इस लापरवाही ने शर्की राज्य तथा शीराजे हिन्द को जो हानि पहुंचायी, उसकी पूर्ति होना असम्भव है। इस संबंध में प्रोफेसर अली मेंहदी ने अपने विचारों को इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
    ‘‘यदि आप स्पेन के इतिहास को उठाकर देखें तो आपकों ज्ञात होगा कि वहां के मुसलमानों ने बड़ा ही बौद्धिक संघर्ष किया। उलमा ने जो रचनाएं की थीं उन्हें विभिन्न स्थानोें से प्राप्त करके विद्या प्रमियों के लिए उपलब्ध किया। इसका परिणाम हुआ कि स्पेन के विश्वविद्यालय ने अवेरोज जैसे महान् विचारक तथा इब्ने खल्दून जैसे प्रमुख इतिहासकार पैदा किये। इसके बाद फात्मी शासकों ने ऐसे संस्धानों को प्रोत्साहन दिया।’’
    इसमें कोई संदेह नहीं कि जौनपुर स्पेन तथा मिश्र की भांति अपने विद्या भंडार को सुरक्षित न रख सका, मगर फिर भी अनेक उलमा तथा विचारकों को जन्म दिया। यह दुख का विषय है कि वे प्राचीन चिन्ह बाकी नहीं रहे और न तो विद्वानों की उन अद्वितीय रचनाओं का ही कुछ पता नहीं चल सका, जिनके लिये जौनपुर विदेशों में प्रसिद्ध था फिर भी जौनपुर के उलमा के महान कार्यों तथा शर्की भवनों ने जौनपुर को चार चांद लगा दिया, जो रहती दुनियां तक शेष रहेगा। यह बात सम्भव थी कि यदि सिकन्दर लोदी के आक्रमण ने शर्की राज्य के साथ-साथ यहां की विद्या एवं रचनात्मक कार्यो तहस-नहस न कर डाला तो कदाचित् विद्या संस्थायें या उलमा किसी न किसी रुप में शेष रहते।
    मगर जब हम देखते है कि जो चिन्ह शेष रह गये थे, उसकों यहां कि लोग बाकी न रख सके धरन, अपने ही हाथों स्वयं नष्ट तथा वीरान किया तो फिर इनसे संरक्षण की क्या आशा हो सकती थी। पाठक इस पुस्तक में अलिमों सूफियों, फकीरों, कविगणों, लेखकों, सुलेख कलाकारों और संगीतकारों की एक में डूब जायेगें। यद्यपि इन महान् कीर्तियों को मनन कर पाठक। चिन्ता सागर की महिमा एवं महत्ता के दृष्टिकोण से बहुत कम है फिर भी जो कुछ, अथक परिश्रम एवं खोज के बाद प्राप्त हुआ पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है।
    सन् 1361 ईं. से लेकर मुगल राज्य के पतन तक की घटनाओं को हमने विवरण सहित प्रस्तुत किया है। विशेष रुप से शर्की राज्य के प्रशासन, सभ्यता, रीतिरिवाज, रहन-सहन, न्याय अपराध की रोकथाम, बाजार, भाव मुद्रा निर्माण कला तथा विद्या प्रसार पर प्रकाश डाला गया है।

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