नया सबेरा नेटवर्क
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यह मिथ्या संसार है,
मृषा ही प्रबल हथियार है।
झूठ का चलता व्यापार है,
लगती नित झूठी बाजार है,
यह कलियुग का संसार है।
अंजलि में गंगा जल लेकर,
गीता पर अचल हाथ रखकर।
आश्रय है सुर तैंतीस कोटि,
रोता सत् बारम्बार है,
यह कलियुग का संसार है।
हंस रहा तिमिर करि अट्टहास,
आलोक भीत हैअम्बर में।
देवत्व वृति हो गयी मौन,
चहुँ ओर रूदन है अति भारी है।
रिश्तों के बन्धन टूट रहे,
मर्यादा का हो रहा ह्रास।
अपने अपनों से छूट रहे,
कलि की लीला यह न्यारी है।
नवयुग का आवाहन करके,
हो रहे बिलग घर के प्राणी।
मन में तो दम्भ प्रगति का है,
परिणाम मात्र अवनति का है।
भाई भाई में प्रेम नहीं,
धन वधू बने कारण इसका।
बहुसंख्यक पुत्र कुपुत्र बने,
अब नहीं है कोई पथ जिसका।
पाश्चात्य संस्कृति के बस में,
होकर हम आज लचार हुए।
जल रही आत्मा नीरस हो,
आगे बढ़ने की भ्रान्ति लिए।
अब भी है समय जागने का,
जीवन का अर्थ समझने को।
जब समय बीत जाएगा तो,
फिर शेष रहेगा रोने को।
अधिकार मात्र है कर्म मेरा,
फल की इच्छा तो निष्फल है।
भगवान कृष्ण की यह वाणी,
जीवन का सार्थक सम्बल है।
सब कर्म समर्पित हो प्रभु को,
माया बन्धन से विरत रहे।
जन-जन में प्रेम परस्पर हो,
आसक्ति प्रभू चरणों में हो।।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप कुमार दूबे
(साहित्य-शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
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