नया सबेरा नेटवर्क
नहाने वाले तो रोज रोशनी में नहाते हैं,
बेचारे मजदूर चराग के लिए तरस जाते हैं।
इनकी उम्मीद की शाखों पे फूल खिलते नहीं,
अपने खून-पसीने से जहां का बोझ उठाते हैं।
झूठ बोलने वाले तो कहाँ से कहाँ पहुँच गए,
यही मीनार, महल, सड़क, अस्पताल बनाते हैं।
जहर पीने का हौसला सबको मिलता है कहाँ?
सूखे कांटे की भाँति खदानों में सो जाते हैं।
यही हैं देश की मजबूत नींव के असली पत्थर,
बहारों से दूर, दर्द की दरिया में डूब जाते हैं।
यूँ तो भूख होती है बड़ी ही बे-दर्द दोस्तों!
ये सब्र का ताला लगाकर रात बिताते हैं।
खूँ से रोज लिखते हैं,न जाने कितनी कहानियां,
कहीं न कहीं यही अमीरी का शजर लगाते हैं।
नहीं पहुँचती आवाज दिल्ली के सिंहासन तक,
पीके ख्वाहिशों का आंसू,आगे निकल जाते हैं।
हुश्न की नदी में जो मालिक उतारते कपड़े,
इधर खाली कटोरे से बच्चे बिलबिलाते हैं।
छज्जे पे आते तो हैं,परिन्दे कुछ खाने के लिए,
लेकिन बिना दाना-पानी के वो लौट जाते हैं।
क़ैद हैं ये, कुछ मुट्ठीभर इंसानों के हाँथों,
वो आधुनिक भगवान इनका लहू पी जाते हैं।
सांस लेने से जो बनाते हैं ये घेरेदार घर,
बिना सुख-शैया पे लेटे अलविदा कह जाते हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार)मुंबई
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