नया सबेरा नेटवर्क
छोटी नदियाँ जो बहती धरा पर सदा
सरिता के नाम से वह सुशोभित हुई
रूकने के संग होती प्रवाहित सदा
चलना बहना हीं उनकी नियति बन गई।
राह सीधी कभी ना मिली उम्र भर
सर से सरिता बनी बस बनी रह गई
जेठ की धूप या पूष की ठण्ड हो
आस सावन लिए बस वो चलती गई।
ग्रीष्म वर्षा शिशिर माह ऋतुराज हो
भाव सम रह सदा इनके संग खेलती
ऋतु शरद हो यहाँ चाहे हेमंत हो
काल का दुख सहज भाव में झेलती।
जन्म सरिता को तो पत्थरों ने दिया
करती कल कल मै कुछ चंचला हो गई
मन को धीरज बंधा गीत गाती रही
गाते गाते कभी निर्कला हो गई।
फर्क मुझमें है मानव से सबसे बड़ा
कोई इच्छा नहीं फिर भी बहती हूँ मैं
कोई प्राणी मुझे मार सकता नहीं
लोकहित जग को संदेश देती हूँ मैं।
जो प्रकृति है मेरी करलो स्वीकार सब
बाधा कठिनाई से हारना मत कभी
बहना मेरी तरह ऋतु का रूख देखकर
टूटकर हारकर तूँ न रूकना कभी।
मेरी धारा है जो वासना है तेरी
रूक सकी ना कभी साथ बहती रही।
साथ तो मेरा छोड़ा किनारों ने भी
बेसहारा बनी फिर भी चलती रही।
अन्त तो तेरा मेरा यही होना है
फर्क दोनों का तूने न पहचाना है
पूजा कर मेरी फिर गन्दगी फेंकना
लेना सीखा बस, देना नहीं जाना है।
पानी के रूप में मैने जीवन दिया
नीर एक दिन मेरा सूख हीं जाएगा
जिन्दगी तब तो तेरी रहेगी नहीं
शव तूँ लेकर जलाने कहाँ जाएगा।
शव जला भी दिया लोगों ने गर तेरा
राख किसकी शरण में तू ले जाएगा
अस्थियाँ भी तेरी होगी बिखरी पड़ी
किस नदी में बहाने उसे जाएगा।
वासना छल अहं थोड़ा कम कीजिए
मांगती अपना सम्मान तुझसे नहीं
मै बची रह गई यदि धरा पर सुनो
होगा स्तित्व तेरा सुरक्षित यहीं।।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
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