नया सबेरा नेटवर्क
मित्र का धर्म वन्दित रहा है सदा
देव भी इसके आगे विवश हो गए
राम सुग्रीव हित धर्म से हो विरत
पा सुदामा को श्रीकृष्ण हर्षित हुए।
मित्र का धर्म अनुपम धरा पर मिला
रंक राजा में होता नहीं भेद है।
संग रहते सदा छाया की भांति वे
मित्र निर्मल सदा कह रहा वेद है।
मित्र के दुख से होते नहीं जो दुखी
देखने से उन्हें पाप लग जाता है
गिरि सरिस अपने दुख को हैं रज जानते
मित्र का धूल-दुख गिरि सॉश होता है।
मित्र सन्मार्ग पर लेके चलता सदा
अवगुणों को सहज वो छिपा लेता है
मन में शंका कभी वे नहीं करते हैं
बल का अनुमान कर हित सदा करता है।
सामने मृदु बचन पीछे करते अहित
अहि सरिस चित्त गर मित्र का हो गया
कष्ट देते सदा ऐसे जो मित्र है
त्याग दोगे उन्हें फिर भला हो गया।
नृप कृपन मित्र कपटी कुनारी तथा
दुष्ट सेवक सभी चारों हीं शूल हैं
ध्यान से चारों से बचना जीवन में निज
इनका विश्वास करना बड़ी भूल है।
मित्र संकट में है स्नेह हो सौ गुना
श्रुति विदित मित्र का धर्म कहते सभी
मित्र तो होते जीवन की एक औषधी
कष्ट आपत्ति आती नही है कभी।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
Ad |
Ad |
Ad |
from Naya Sabera | नया सबेरा - No.1 Hindi News Portal Of Jaunpur (U.P.) https://ift.tt/3yzfxw6
0 Comments