नीलांबर में बादल छाने लगे हैं,
कण-कण में खुशियाँ बोने लगे हैं।
मानसून ने ली ऐसी अंगड़ाई,
जड़- चेतन दोनों झूमने लगे हैं।
प्यासी थी धरती इतने दिनों से,
अंग-अंग उसके खिलने लगे हैं।
झमाझम बारिश में छोटे बच्चे,
कागज की कश्ती चलाने लगे हैं।
दादुर, मोर, पपीहा झींगुर के,
मधुर स्वर कान में गूंजने लगे हैं।
नदियों ने ली है ऐसी अंगड़ाई,
खेत समंदर- सा दिखने लगे हैं।
हल-बैल लेकर निकले किसान,
खेत -खेत बीज वो बोने लगे हैं।
सज गई फसल से सारी सिवान,
फिजा के पांव थिरकने लगे हैं।
पड़ गए गाँव-गाँव सावन के झूले,
पेंग बढ़ाकर नभ छूने लगे हैं।
कुदरत बचेगी, तो ही हम बचेंगे,
वृक्षारोपण भी करने लगे हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
0 Comments