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मैं सोच रहा हूँ कब से! ( नज़्म ) | #NayaSaberaNetwork

मैं सोच रहा हूँ कब से! ( नज़्म ) | #NayaSaberaNetwork


नया सबेरा नेटवर्क

ये सागर की हलचल है,
या तेरे बदन को छूकर निकली हवा।
ये जमीं पे सितारे हैं,
या तेरे लिबास की चमक।
ये तेरे गेसुओं की साया है,
या मंजिल से भटका,
कोई आवारा बादल।
ये रातरानी से आ रही गमक है,
या ये तेरे बदन की खुशबू।
ये बिजली की चमक है,
या तेरे माथे की बिंदिया।
मैं कब से सोच रहा हूँ बैठे-बैठे,
पर यहाँ तो कोई नहीं है,
तब भी तू एहसास करा रही है,
कि तू यही है,  तू यहीं कहीं है।

ऐ! मेरे हमदम, ऐ! मेरे चितचोर,
ये कुंवारा दिल तेरे साथ है।
मुझे भी तो तेरी प्यास है।
जन्मों-जन्मों की मेरी प्यास बुझा दे।
अपने रंगों से मुझे रंग दे।
मैं किसी और की मोहताज़ न रहूँ।

ऐ! मेरी धड़कन, मुझे ये बता कि 
ये पक्षियों का कलरव है,
या तेरे पायल की रुनझुन।
ये सावन की रुत है,
या तेरी चढ़ती जवानी।
ये कोई मदिरा से भरी बोतल है,
या तेरी आँखों से छलकता जाम।
ये प्रणय के घनेरे बादल हैं,
या तेरी अदाओं की फुहार।
ये गगन की मंद -मंद मुस्कान है,
या तेरे सुरीले सुर्ख होंठों पे
सोता मेरा दिल।
तू कोई कल्पना नहीं!
तू हक़ीक़त हो, हक़ीक़त हो, हक़ीक़त हो।
दुनिया की इस रस्मी
दीवार को आज गिरा दो,
और इन दो बेताब दिलों को 
अब मिला दो।

ऐ! मेरे हमराही!
छोड़ दो अपनी फिक्र, मै तेरे साथ हूँ।
मेरी साँसें तेरी साँसों अब घुलने लगी हैं।
तेरे ख्वाबों में निशिदिन ये जगने लगी हैं।
ये मयकशी बदन तेरा है,
ये सारा जलवा तेरा है।
शीशे जैसी चमकती ये जवानी तेरी है।
मेरी जीवन-बगिया अब तेरी है।
हम दो जिस्म एक जां हो रहे हैं।
मुझे भी तुमसे मोहब्बत है, 
मोहब्बत है। मोहब्बत है।

ऐ! मेरी दिलरुबा!
मालिक, सौ बार बनाकर तुम्हें ,
सौ बार मिटाया होगा।
तब जाकर तुम्हें इतना
हसीन बनाया होगा।
तू अपना नाजुक हाथ
मेरे हाथों में थमा दे।
नहीं तो किसी दीवार में चुनवा दे।
तोड़ दे मेरे मन अब ये भ्रम कि -
ये कलियों की पंखुड़ियाँ हैं,
या तेरे अधखिले अंग।
आसमान से ये उतरे सितारे हैं,
या तेरे बदन की आभा।
ये लहरों की रवानी है,
या तेरे क़दमों की आहट।
ये बहता कोई झरना है,
या तेरे सांसों की सरगम।
ये कोयल की कुहुक है,
या तूने चुपके से कुछ कहा है।
ये कोई खिला कंवल है,
या तेरे लबों की हँसी।
ये मचल रही हैं हवाएँ,
या तेरे बदन की अंगड़ाई।
ये महुवे से टपकता रस है,
या तेरे यौवन की महक।
मैं सोच रहा हूँ कब से,
तू यहीं जुहू बीच पे हो,
इसी साहिल पे हो।
मेरी डूबती कश्ती बचा लो,
मेरा बुझता चराग़ जला दो,
ऐ! नाज़नीन, ऐ! गुलबदन,
इस नांदा दिल पर तरस खाओ,
बिना देर किए इस दिल के
घरौंदे में बस जाओ।
क्योंकि मुझे तुमसे मोहब्बत है,
मोहब्बत है, मोहब्बत है।।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

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