नया सबेरा नेटवर्क
घनघोर बादल बरसने लगे हैं,
जीवन नया फिर बोने लगे हैं।
सूख रहे थे धरती के अधर,
मंद- मंद वो मुस्काने लगे हैं।
दादुर, खंजन, मोर, पपीहा,
गीत मल्हार का गाने लगे हैं।
उठने लगी है मिट्टी से खुशबू,
जड़- चेतन गमकने लगे हैं।
ताल- तलैया, नदिया, पोखर,
बारिश पाकर थिरकने लगे हैं।
कागज की कश्ती बनाके बच्चे,
बारिश का लुफ्त लेने लगे हैं।
चिलचिलाती धूप से मिली छुट्टी,
डालों पे परिन्दे चहकने लगे हैं।
खेत-किसानी के दिन फिर लौटे,
फसलों से खेत सजने लगे हैं।
डालों पे पड़ गए सावन के झूले,
बच्चे गगन को छूने लगे हैं।
सज गई धरा दुल्हन के जैसी,
चारों तरफ फूल खिलने लगे हैं।
क़ायम रहे हरियाली धरा पे,
वृक्षारोपण होने लगे हैं।
प्रदूषण न फिर से बाण चलाये,
पर्यावरण को शुद्ध करने लगे हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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