नया सबेरा नेटवर्क
उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।
प्यासी है कब से ये धरती,
प्यासे इसके परिन्दे।
तपिश बढ़ी इस गर्मी की,
व्याकुल हैं तेरे बन्दे।
चढ़ी हुई है तेरी जवानी,
कुछ अच्छा कर जा।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।
उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।
टिप-टिप बूंदें गिरते ही तेरी,
धरती महक उठेगी।
बड़ी शान से बहेंगी नदियाँ,
चिड़िया चहक उठेगी।
जीवन की फिर बगिया महके,
वो फूल खिलाने आ जा।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।
उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।
कहीं रहे न धरती बंजर,
उखड़ा-उखड़ा दिखे न मंजर।
बिछ जाओ तू मोती बनकर,
बिछ जाओ तू हीरा बनकर।
दाने जब फसलों में झूमें,
तब लौट के यहाँ से जा।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।
उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।
रामकेश एम. यादव, कवि, साहित्यकार, मुंबई
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