नया सबेरा नेटवर्क
अक्श आँखों से अपना पी रहे हैं लोग,
आजकल किस दुनिया में जी रहे हैं लोग।
दौर-ए -जमाना नहीं रहा है एक सामान,
इसी उम्मीद से तो फिर जी रहे हैं लोग।
आना-जाना तो है ये कुदरत का नियम,
इसी वजह से सारे दुःख पी रहे हैं लोग।
रंगीन दुनिया के ख्वाब कभी झूठे नहीं,
अपनी फटी जिंदगी फिर सी रहे हैं लोग।
बो रहे हैं नींद फिर लोग आशियाने में,
गम के प्याले सपनों में पी रहे हैं लोग।
ख्यालों की किताबों का पलट रहे हैं पन्ना,
दर्द के हर पन्नों को अब सी रहे हैं लोग।
मिटते नहीं हैं दर्द कुछ रहते कलेज़े में,
जोड़ -जोड़कर साँसें फिर जी रहे हैं लोग।
तन्हाई टपकती कितनी दरो -दीवारों से,
कश्मकश में ज़िन्दगी कुछ जी रहे हैं लोग।
आँखें हैं समंदर से भी ज्यादा गहरी,
जाम उन आँखों से फिर पी रहे हैं लोग।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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