नया सबेरा नेटवर्क
हवा!
हवा दरख्त के ऊपर सोती,
कितनी अच्छी लगती है।
डालों पे जब पेंग मारती,
नभ की कन्या लगती है।
बाग, तड़ागों में रंग इसका,
निखरा- निखरा रहता है।
घर -आँगन में जब ये आती,
दिल उखड़ा-उखड़ा रहता है।
कट रहे जंगल से नाखुश,
गम को कैसे ढोती है।
बयां करे ये दर्द को कैसे?
अंदर - अंदर रोती है।
इसकी आँखें लाल हुई हैं,
कोई तो दवा पिलाओ।
बिछ जाए हरियाली धरा पर,
कोई तो वैद्य बुलाओ।
जिस दिन ये तोड़ेगी रिश्ता,
हाय- तौबा मच जाएगी।
पिलाओ न दूध प्रदूषण को,
नहीं, तो क़यामत ढाएगी।
रंज-ओ-गम इसका सब समझो,
पेंच-ओ-खम अब दूर करो।
चमके चमचम इसका लिबास,
और न कोई भूल करो।
इसे न सुलाओ सलीब पे कोई,
और न चीरहरण करो।
रंग-ए-चमन रहे निखरा-निखरा,
हर मोड़ पे इसके संग रहो।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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