नया सबेरा नेटवर्क
हो गई सुबह से शाम, क्यों न चलते मधुशाला,
प्यालों में नपी साँस, क्यों न चलते मधुशाला।
आगे-पीछे थिरक रही हैं कितनी साकीबाला,
बुझती नहीं है प्यास, क्यों न चलते मधुशाला।
धन कुबेर के कितने छौने आए और चले गए,
राम-नाम का धन लूटने क्यों न चलते मधुशाला।
लोगों के मन के अंदर कटुता कितनी है भरी,
मन का मद मिटाने तू ,क्यों न चलते मधुशाला।
लूट रहे निशि - दिन दौलत उन सूखे आँसू से,
मार पड़े न डंडे की वो,क्यों न चलते मधुशाला।
मनमाना चलकर पियो कबीरदास की वाणी,
अमृतरस से न हों वंचित,क्यों न चलते मधुशाला।
आज वक़्त है साथ में अपने कल किसने देखा,
सुरा-सुंदरी किस कामके,क्यों न चलते मधुशाला।
पंडित,ज्ञानी,मुल्ला,पादरी सब खोज रहे उसको,
ऋषिके जैसे ध्यानलगाने क्यों न चलते मधुशाला।
मधुशाला ऐसी है यारों उसमें बैठा रब,
जन्मजन्म कीप्यास बुझे क्यों न चलते मधुशाला।
भाँति-भाँति के पीने वाले,भाँति-भाँति का प्याला,
छोड़-छाड़ अंगूरी- तन, क्यों न चलते मधुशाला।
तड़क- भड़क की दुनिया में देखो खो न जाना,
अंतर्मन की प्यास बुझे ,क्यों न चलते मधुशाला।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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