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मधुशाला!
बेशकीमती समय गंवाया,
कभी न छुआ वो हाला।
जाते -जाते अब तू पी ले,
रामनाम का वो प्याला।
पीने को देखो सब पीते,
अपने अधरों से प्याला।
नहीं जरुरी पीनेवाला,
जाकर पिए मधुशाला।
पीता सागर, पीती नदियाँ,
चंचल लहरों का प्याला।
कलियों की आँखों से पीता,
भौंरा मस्ती का प्याला।
पीती हैं वो देख फिजाएँ,
धरा के अधरों से प्याला।
घट-घट-घट-घट बादल पीता,
विद्युत के हाथों हाला।
पीता है सारा जड़ - चेतन,
पीती है संध्या बाला।
कौन नहीं पीता जग में,
कोई बताए मतवाला।
पीते हैं वो नभ के तारे,
चाँद के हाँथों से प्याला।
सुबह -सुबह किरणे पीती हैं,
देखो शबनम की हाला।
भर लो-भर लो दुनियावालों,
जितना चाहो तू प्याला।
नहीं मिलेगा जन्म ये दुबारा,
बात समझ तू मतवाला।
जहाँ कहीं भी मिल जाए,
राम - नाम की मधुशाला।
जन्म-जन्म की प्यास बुझाले
फिर न मिलेगी मधुशाला।
क्षण भंगुर इस जीवन में
पीना न लालच का प्याला।
नहीं साथ कुछ जाएगा,
यही सिखाती मधुशाला।
निष्काम भाव से पी लेना,
छूना नहीं रिश्वत का प्याला।
भले ट्रान्सफर कर दे कोई,
अंबाला से खंडाला।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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