डॉ. प्रशांत त्रिवेदी
भारत में औपनिवेशिक प्रभाव के कारण 19वीं सदी से अभी तक मुख्यतः दो विचारधाराएं रहीं है। पहली विचारधारा को मै एकतावादी कहूंगा, जो यह मानती है कि भारत एक संस्कृति है,एक सभ्यता है, एक राष्ट्र है और यह प्राचीनकाल से विद्यमान है। भाषा, पंथ, वेश–भूषा, खान–पाना, पूजा–पद्धति आदि की सतही भिन्नता हो सकती है, लेकिन सबकी आत्मा एक है। देश में एकता ही मूल है, भिन्नता सतही है। सबका मूल सनातन धर्म है। भारत में एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकता है। यह विचारधारा राष्ट्रवाद, विशेषकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ज्यादा महत्व देती है। यह मानती है कि हमारा देश विज्ञान और तकनीकी में भी पीछे नहीं रहा है। हमें अपने विकास के लिए किसी दूसरे देश की नकल करने की जरूरत नहीं है, बल्कि हमें अपने प्राचीन गौरवशाली परंपरा को समझकर उसी से आगे बढ़ना है। यह विचारधारा व्हाइटमेन बर्डन थ्योरी को नकारती है और यूरोप की श्रेष्ठता को भी स्वीकार नहीं करती। यह अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व करने पर जोर देती है।
दूसरी विचारधारा को मै अनेकतावादी कहूंगा, जो यह मानती है कि भारत एक राष्ट्र न होकर एक भौगोलिक अभिव्यक्ति है, जहां अनेक भी भाषा, धर्म, नृजातीय के लोग रहते हैं। यहां अनेकता ही मौलिक है, एकता ऊपरी है।भारत में केवल राजनीतिक और प्रशासनिक एकता है। यह विचारधारा पंथनिरपेक्षता को बहुत ज्यादा महत्व देती है। यह भारत में अग्रेजों के शासन को भारत के लिए अच्छा मानती है। इसका मानना है कि हम अग्रेजों से सीखकर अपने को आधुनिक बना सकते हैं। आज ये अंग्रेज के बजाय अमेरिका और यूरोप से प्रेरणा लेते हैं। यह अपने धर्म और संस्कृति को हेय दृष्टि से देखती है।
वर्तमान में राजनीतिक स्तर पर पहले (एकतावाद)का प्रतिनिधित्व भाजपा कर रही है, दूसरे (अनेकतावाद)का प्रतिनिधित्व कांग्रेस कर रही है। 19वीं सदी में एकतवाद का प्रतिनिधित्व दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद ने किया तो दूसरे का प्रतिनिधित्व राजाराम मोहन राय ने किया था। कांग्रेस की स्थापना के बाद इसमें दो गुट बने– नरम दल और गरम दल। नरम दल जिसमें दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, व्योमेश चंद्र बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले आदि नेता थे, वह अनेकतावाद का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। गरम दल जिसमें बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष, लाला लाजपत राय आदि नेता थे,वे एकतावाद का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। गांधी जी ने दोनों को मिलाने का प्रयास किया और कई वर्षों तक सफल भी रहे। नेहरू जी ने भी कांग्रेस को सतरंगी बना कर इनको मिलाने का प्रयास किया और समाजवाद का तड़का उसमें लगा दिया। लेकिन इंदिरा गांधी इसे संभाल नहीं पाईं और कई वर्षों से दबी एकतावादी विचारधारा का उभर फिर से शुरू हो गया। लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी बाजपाई, नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में एकतावादी विचारधारा ने अनेकतावादी विचारधारा को काफी पीछे धकेल दिया, लेकिन विचारधारा कभी मरती नहीं। इसलिए ये दोनों विचार धाराएं ही काफी प्रबल रूप में एक दूसरे से संघर्ष कर रहीं हैं। यह लड़ाई केवल राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि एकेडमिक क्षेत्र, मीडिया, सिनेमा, गीत–संगीत आदि क्षेत्रों में भी एक दूसरे से लड़ रहीं हैं। राजनीति में अनेकतावाद भले ही थोड़ा कमजोर हुई हो, लेकिन एकेडमिक क्षेत्र और सिनेमा में अनेकतावादी विचारधारा बहुत प्रभावी है। आज भी प्रोफेसर और फिल्म प्रोड्यूसर,विशेषकर बॉलीवुड के, इसे ही ज्यादा महत्व दे रहे हैं।
भारत में इन दोनों विचारधाराओं से भिन्न छोटी–छोटी विचारधाराएं भी है जैसे साम्यवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद। लेकिन साम्यवाद और समाजवाद दोनों विचारधाराएं अनेकतावाद में से मिल गई हैं। क्षेत्रवाद और जातिवाद इन दोनों विचारधाराओं के लिए चुनौती बने रहे थे और ये दोनों ही भारत में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उभरने का कारण रहीं हैं। हालाकि अब अनेकतावादी विचारधारा जातिवाद को अपने साथ समाहित करने में लगी है। लेकिन क्षेत्रीय दल जातिवाद को छोड़ना नहीं चाहते। व्यापक स्तर पर जातिवाद को अनेकतावाद का ही एक उपविभाजन कह सकते हैं। सीमित क्षेत्रवाद का समर्थन दोनों विचारधाराएं करती हैं लेकिन प्रबल और अलगाववादी क्षेत्रवाद को दोनों ही दबाने का प्रयास करती हैं।
भारत में औपनिवेशिक प्रभाव के कारण 19वीं सदी से अभी तक मुख्यतः दो विचारधाराएं रहीं है। पहली विचारधारा को मै एकतावादी कहूंगा, जो यह मानती है कि भारत एक संस्कृति है,एक सभ्यता है, एक राष्ट्र है और यह प्राचीनकाल से विद्यमान है। भाषा, पंथ, वेश–भूषा, खान–पाना, पूजा–पद्धति आदि की सतही भिन्नता हो सकती है, लेकिन सबकी आत्मा एक है। देश में एकता ही मूल है, भिन्नता सतही है। सबका मूल सनातन धर्म है। भारत में एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकता है। यह विचारधारा राष्ट्रवाद, विशेषकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को ज्यादा महत्व देती है। यह मानती है कि हमारा देश विज्ञान और तकनीकी में भी पीछे नहीं रहा है। हमें अपने विकास के लिए किसी दूसरे देश की नकल करने की जरूरत नहीं है, बल्कि हमें अपने प्राचीन गौरवशाली परंपरा को समझकर उसी से आगे बढ़ना है। यह विचारधारा व्हाइटमेन बर्डन थ्योरी को नकारती है और यूरोप की श्रेष्ठता को भी स्वीकार नहीं करती। यह अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व करने पर जोर देती है।
दूसरी विचारधारा को मै अनेकतावादी कहूंगा, जो यह मानती है कि भारत एक राष्ट्र न होकर एक भौगोलिक अभिव्यक्ति है, जहां अनेक भी भाषा, धर्म, नृजातीय के लोग रहते हैं। यहां अनेकता ही मौलिक है, एकता ऊपरी है।भारत में केवल राजनीतिक और प्रशासनिक एकता है। यह विचारधारा पंथनिरपेक्षता को बहुत ज्यादा महत्व देती है। यह भारत में अग्रेजों के शासन को भारत के लिए अच्छा मानती है। इसका मानना है कि हम अग्रेजों से सीखकर अपने को आधुनिक बना सकते हैं। आज ये अंग्रेज के बजाय अमेरिका और यूरोप से प्रेरणा लेते हैं। यह अपने धर्म और संस्कृति को हेय दृष्टि से देखती है।
वर्तमान में राजनीतिक स्तर पर पहले (एकतावाद)का प्रतिनिधित्व भाजपा कर रही है, दूसरे (अनेकतावाद)का प्रतिनिधित्व कांग्रेस कर रही है। 19वीं सदी में एकतवाद का प्रतिनिधित्व दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद ने किया तो दूसरे का प्रतिनिधित्व राजाराम मोहन राय ने किया था। कांग्रेस की स्थापना के बाद इसमें दो गुट बने– नरम दल और गरम दल। नरम दल जिसमें दादा भाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, व्योमेश चंद्र बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले आदि नेता थे, वह अनेकतावाद का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। गरम दल जिसमें बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष, लाला लाजपत राय आदि नेता थे,वे एकतावाद का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। गांधी जी ने दोनों को मिलाने का प्रयास किया और कई वर्षों तक सफल भी रहे। नेहरू जी ने भी कांग्रेस को सतरंगी बना कर इनको मिलाने का प्रयास किया और समाजवाद का तड़का उसमें लगा दिया। लेकिन इंदिरा गांधी इसे संभाल नहीं पाईं और कई वर्षों से दबी एकतावादी विचारधारा का उभर फिर से शुरू हो गया। लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी बाजपाई, नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में एकतावादी विचारधारा ने अनेकतावादी विचारधारा को काफी पीछे धकेल दिया, लेकिन विचारधारा कभी मरती नहीं। इसलिए ये दोनों विचार धाराएं ही काफी प्रबल रूप में एक दूसरे से संघर्ष कर रहीं हैं। यह लड़ाई केवल राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि एकेडमिक क्षेत्र, मीडिया, सिनेमा, गीत–संगीत आदि क्षेत्रों में भी एक दूसरे से लड़ रहीं हैं। राजनीति में अनेकतावाद भले ही थोड़ा कमजोर हुई हो, लेकिन एकेडमिक क्षेत्र और सिनेमा में अनेकतावादी विचारधारा बहुत प्रभावी है। आज भी प्रोफेसर और फिल्म प्रोड्यूसर,विशेषकर बॉलीवुड के, इसे ही ज्यादा महत्व दे रहे हैं।
भारत में इन दोनों विचारधाराओं से भिन्न छोटी–छोटी विचारधाराएं भी है जैसे साम्यवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद। लेकिन साम्यवाद और समाजवाद दोनों विचारधाराएं अनेकतावाद में से मिल गई हैं। क्षेत्रवाद और जातिवाद इन दोनों विचारधाराओं के लिए चुनौती बने रहे थे और ये दोनों ही भारत में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के उभरने का कारण रहीं हैं। हालाकि अब अनेकतावादी विचारधारा जातिवाद को अपने साथ समाहित करने में लगी है। लेकिन क्षेत्रीय दल जातिवाद को छोड़ना नहीं चाहते। व्यापक स्तर पर जातिवाद को अनेकतावाद का ही एक उपविभाजन कह सकते हैं। सीमित क्षेत्रवाद का समर्थन दोनों विचारधाराएं करती हैं लेकिन प्रबल और अलगाववादी क्षेत्रवाद को दोनों ही दबाने का प्रयास करती हैं।
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