नया सबेरा नेटवर्क
सुप्रसिद्ध पत्रिका 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' के 16 से 22 फरवरी 1992 के अंक में मेरा प्रथम हिन्दी लेख प्रकाशित हुआ था. आज पुराने अख़बार और पत्रिकाएँ हाथ लगी, जिसे मैंने बड़े-बड़े बोक्स में संगृहीत कर रखा है। उसमें कहीं न कहीं मेरे स्तंभ या लेख, कहानी, निबंध या अन्य साहित्यिक रचनाएँ प्रकाशित हुई थी।
जब 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' पहला लेख छपा था तब आदरणीया मृणाल पाण्डेय जी संपादक थीं. यह लेख का स्वीकृति पत्र के साथ उन्हों ने लिखा था; "पंकज जी, आप अच्छी हिन्दी लिख लेते हैं। आईए न हिन्दी साहित्य को आपका इंतज़ार है..."
मेरे लिए उनके यह शब्द संजीवनी बूटी से कम नहीं था।
यह लेख मेरे शहर की जानीमानी समाज सेविका श्रीमती शांता बहन देसाई 'ताई' के जीवन पर आधारित था। वो आज भी अनाथ बच्चों के जीवन उत्कर्ष एवं समाज में उन्हें स्थापित करने का कार्य कर रही हैं। यह लेख असल में गुजराती में ही था. उसके बाद मैंने हिन्दी किया। इसी लेख पर श्रीमती शांता बहन को अमरीका की जानीमानी समाज सेविका 'सुसान एंथनी' के नाम से अवार्ड मिला था।
उन्हीं दिनों में सुप्रसिद्ध साहित्यकार भीष्म साहनी से संपर्क हुआ. हमारे बीच में लगातार पोस्टकार्ड लिखने सिलसिला शुरू हुआ। मैंने भीष्म जी की 10- कहानियाँ चुनकर गुजराती अनुवाद किया और तब गुजराती 'जनसत्ता' में वो छपे। बाद में उसका किताब में संकलन भी हुआ।
उसी दौरान प्रदीप पंत, मंगलेश डबराल, हिमांशु जोशी, डॉ. गंगा प्रसाद विमल, राजेन्द्र यादव, श्याम सुंदर और यशवंत व्यास (दैनिक नवज्योति), डॉ. विनय (नूतन सवेरा) जैसे कईं सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवं संपादकों से मिलना या पत्राचार से संबंध जुड़ गया था।
मैं पिछले 35-वर्षों से गुजराती साहित्य में लिखता रहा हूँ। 1992 के इस लेख से हिन्दी साहित्य में प्रवेश किया। इस लेख के छपने की ख़बर तब हुई जब मैं अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर था और बुक स्टाल पर जिज्ञासावश 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' का अंक ख़रीद लिया। तब मुझे अंदाज़ा भी नहीं था कि एक ही सप्ताह में मेरा लेख प्रकाशित हो जाएगा। मैंने तो 1983 के क्रिकेट वर्ल्ड कप की फोटो देखी और ख़रीद ली।
उन दिनों में मैं ठीकठाक क्रिकेटर भी था. गांधीनगर की टीम में था और अहमदाबाद की टीम से मैच था। उसमें मैंने 7-8 रन ही बनाए थे मगर बतौर स्पिनर 3-विकेट लिए थे और वो गेंद आज भी मेरे पास है। उस वक्त अहमदाबाद टीम में अमीष साहेबा भी थे जो बाद में रणजी ट्रॉफी मैचों में अम्पायरिंग करते थे।
जब यह लेख छपा और एक दिन पारिश्रमिक के रु. 400 का चैक मिला तो बड़ी ख़ुशी से - यूँ कहिए नाचते हुए पिताजी के पास गया और उन्हें चैक दिखाया। तब मेरा बैंक अकाउंट नहीं था तो पिताजी से पचास रुपये लेकर अकाउंट खुलवाया और चैक डाल दिया।
मेरे स्वर्गीय पिताजी ख़ुद गुजराती के साहित्यकार थे तो उनकी भी ख़ुशी इस लेख के छपने से उतनी ही थी। उन्होंने आशीर्वाद देते इतना ही कहा; 'ख़ूब लिखो, अच्छा लिखो.' - वो बात आज भी स्मरण में हैं।
कईबार 'विश्व गाथा' के पाठक, हिन्दी साहित्य से जुड़े मित्र पूछते हैं, आप हिन्दी साहित्य में कैसे आएं? उनके तो अनेक संस्मरण है मगर वो फिर कभी... फिलहाल तो यह लेख ही आपके साथ साझा करने का मन है।
'साप्ताहिक हिंदुस्तान' पत्रिका की साइज़ बहुत बड़ी होती थी, इसलिए पूरा पेज ठीक से स्कैन नहीं कर पाया मगर इतना भी पर्याप्त है।
आप सभी का स्नेह बना रहें यही शुभ भाव है।
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पंकज त्रिवेदी
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