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भूमि अधिग्रहण पर भूमिस्वामी के हक में सुप्रीम कोर्ट का एतिहासिक फैसला | #NayaSaberaNetwork

भूमि अधिग्रहण पर भूमिस्वामी के हक में सुप्रीम कोर्ट का एतिहासिक फैसला | #NayaSaberaNetwork


नया सबेरा नेटवर्क
संपत्ति के अधिकार से वंचित केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किया जा सकता है- सुप्रीम कोर्ट
गोंदिया- भारत में भूमि अधिग्रहण व सीलिंग अधिनियम के संबंध में भूमिस्वामियों और अधिग्रहण करने वाली केंद्र व राज्य सरकारों के बीच अनेक विवाद हम प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से सुनते हुए देखते आ रहे हैं और इस अधिग्रहण के संबंध में कई आंदोलन,ज्ञापन द्वारा सरकारों से असहमति दर्शाई जाती है और मामला अदालतों की दहलीज तक पहुंच जाता है। जैसे ट्रायल कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है और इस वैधानिक प्रक्रिया में सालों साल लग जाते हैं। ऐसा नहीं है कि सरकारों ने ध्यान नहीं दिया है, केंद्र सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण संशोधन बिल 2013 पास किया था जिसमें भूमिस्वामियों को उनके भूमि का सरकारी मूल्यांकन से 4 से 5 गुना अधिक की क्षतिपूर्ति का प्रावधान भी है। फिर भी एक प्रक्रिया के तहत विवाद आता है और भूमिस्वामियों की इस अधिग्रहण या सीलिंग के मामले में असहमति होती है और मामला अदालतों में पहुंचता है फिर अपील,सेकंड अपील रिवीजन पिटिशन,सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंचता है फिर अनेक सहायक बातें जैसे सीलिंग एक्ट,संविधान का आर्टिकल 300 ए आर्टिकल 14,15,16,21 सभी का पक्ष केस में संलग्न हो जाता है जिसका भूमिस्वामियों को अधिकार भी है, और सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि हम कहते हैं कि संपत्ति का अधिकार अभी भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 300 ए के तहत एक संवैधानिक अधिकार है, हालांकि यह मौलिक अधिकार नहीं है। अधिकार से वंचित केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हो सकता है। इस मामले में कानून उक्त अधिनियम है।..... इसी विषय पर आधारित एक मामला मंगलवार दिनांक 19 जनवरी 2021 को माननीय सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच जिसमें माननीय न्यायमूर्ति संजय किशन कौल,माननीय न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी तथा माननीय न्यायमूर्ति ऋषिकेश राय की बेंच के सम्मुख सिविल अपील क्रमांक 6209/2010 जो के ट्रायल कोर्ट के फाइनल आर्डर दिनांक 30 मार्च 1979 से असहमत होकर प्रथम व द्वितीय अपील के बाद उत्पन्न हुई थी। याचिकाकर्ता बनाम मध्यप्रदेश राज्य, जिसमें माननीय बेंच ने अपने 20 पृष्ठों और 31 पॉइंटों के आदेश में, एग्रीकल्चरल होल्डिंग एक्ट, 1960 पर मध्य प्रदेश सीलिंग के तहत कार्यवाही से जुड़े एक मामले पर विचार करते हुए दोहराया कि संपत्ति के अधिकार से वंच‌ित केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार किया जा सकता है। अपीलार्थी का हित-पूर्वाधिकारी कृषि योग्य भूमि का भूमिस्वामी था। 1979 में अपीलकर्ता के खिलाफ एक आदेश प्रकाशित किया गया, जिसमें कहा गया कि कुछ हद तक जमीन अधिशेष के रूप में है। मध्य प्रदेश भूमि राजस्व संहिता, 1959 की धारा 248 के तहत कब्जे और बेदखली की कार्यवाही के लिए, उत्तरदाताओं द्वारा अपीलकर्ता के खिलाफ कार्रवाई शुरू की गई थी। हालांकि, अपीलकर्ता ने उक्त भूमि के संबंध में स्वामित्व और स्थायी निषेधाज्ञा की घोषणा के लिए एक मुकदमा दायर किया। इस मुकदमे को ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया।अपीलीय अदालत ने ट्रायल कोर्ट के निष्कर्षों को उलट दिया और माना कि सक्षम प्राधिकरण उक्त अधिनियम की धारा 11 (3) और 11 (4) के तहत वैधानिक प्रावधानों का पालन करने में विफल रहा है। उसने घोषणा की कि अपीलकर्ता, अधिशेष भूमि की भूस्वामी है और उत्तरदाताओं को भूमि के कब्जे में दखल देने से रोक दिया था। उच्च न्यायालय ने उत्तरदाताओं द्वारा दायर की गई दूसरी अपील की अनुमति देते हुए अपीलीय न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया। अपील में बेंच ने पहले इस तथ्य पर विचार किया कि क्या अपीलकर्ता ने सक्षम अधिकारी के समक्ष सिविल मुकदम के लंबित होने को लेकर आपत्तियां दर्ज की हैं? वादों का उल्लेख करते हुए, अदालत ने उत्तरदाताओं की एक प्रस्तुति पर ध्यान दिया कि वापसी में अपीलकर्ता, उक्त अधिनियम की धारा 9 के अनुसार दायर किया गया था, जिसमें लंबित मुकदमे के पहलू का उल्लेख किया गया था। अधिनियम की धारा 11 (4) का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा, "धारा 11 (4) में यह कहा गया है कि यदि सक्षम प्राधिकारी पाता है कि किसी विशेष धारक के स्वामित्‍व के संबंध में कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है, जो सक्षम न्यायालय द्वारा निर्धारित नहीं किया गया है, तो सक्षम प्राधिकारी इस तरह के प्रश्न के गुणों में सरसरी तौर पर पूछताछ करने और ऐसे आदेशों को पारित करने के लिए आगे बढ़ेगा जैसा कि वह उचित समझता है। इस प्रकार, भूमि के इस तरह के विवाद को निर्धारित करने के लिए सक्षम प्राधिकारी के साथ शक्ति निहित है।हालांकि, यह प्रावधान के अधीन है। प्रावधान स्पष्ट रूप से निर्धारित करता है - यदि ऐसा है सक्षम न्यायालय के समक्ष निर्णय के लिए प्रश्न पहले से ही लंबित है, सक्षम प्राधिकारी न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा करेगा।अदालत ने कहा कि अधिनियम की योजना उत्तरदाताओं द्वारा वैधानिक प्रावधानों का पालन नहीं करने के कारण भंग हुई है। इस संदर्भ में, पीठ ने कहा,हम कहते हैं कि संपत्ति का अधिकार अभी भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 300 ए के तहत एक संवैधानिक अधिकार है, हालांकि यह मौलिक अधिकार नहीं है। अधिकार से वंचित केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार हो सकता है। इस मामले में कानून उक्त अधिनियम है। इस प्रकार, एक व्यक्ति को भूमि के अधिशेष से वंचित करने के लिए उक्त अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन आवश्यक है।उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए और अपीलीय न्यायालय के फैसले को बहाल करते हुए, पीठ ने कहा,उक्त अधिनियम के प्रावधान बहुत स्पष्ट हैं कि प्रत्येक चरण में क्या किया जाना है। हमारे विचार में, एक बार ‌डिस्‍क्लोज़र के बाद, मामले को उक्त अधिनियम की धारा 11 की उप-धारा (4) के तहत निस्तार‌ित किया जाना था और अपीलकर्ता और जेनोबाई के बीच लंबित मुकदमे की कार्यवाही के मद्देनजर, प्रावधान भूमिका में आ गया, जो अदालत के फैसले का इंतजार करने के लिए प्रतिवादी अधिकारियों की आवश्यकता है।सब-सेक्शन 5 और उसके बाद सब-सेक्शन 6, सब-सेक्शन 4 की अनिवार्यता पूरी होने के बाद लागू होगा। वर्तमान मामले में ऐसा नहीं था। यहां तक कि जेनोबाई को भी नोटिस जारी नहीं किया गया। वह आगे स्थिति स्पष्ट कर सकती थी। जेनोबाई के पक्ष में डिक्री का प्रभाव यह है कि अपीलकर्ता उस भूमि को रखने का अधिकार खो देता है और उसकी कुल भूमि की स‌ीलिंग लिमिट के भीतर आ जाती है। यदि कोई अधिशेष भूमि नहीं है, तो उक्त अधिनियम के तहत अधिशेष भूमि पर कब्जा करने के लिए किसी भी कार्यवाही का कोई प्रश्न नहीं हो सकता है।
संकलनकर्ता कर विशेषज्ञ एड किशन भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र

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