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दादा जी दरख़्त हैं
इस घर के
दरख़्त घर के आँगन में
जमा है बरसों से
बहुत गहरे तक फैली है
दरख़्त की जड़ें
यहाँ तक कि दीवारों में भी
धँस गई हैं वे
और दिलचस्प है कि
इन दीवारों को दे रही है सहारा
जिसके चलते 'अब गिरी कि अब'
दिखने वाली दीवारें 'जस की तस' हैं
एक मुद्दत से
दरख़्त मुखिया है घर का
मूलनिवासी क्षेत्र-नगर का
लोग इसी के नाम से
जानते हैं हमें,
बतलाते हैं वे
इस दरख़्त की कहानी
कि उनके देखते-देखते
कई बार सूख कर हरा हुआ है यह
दरख़्त कच्चे सूत से सूता गया
तीज त्यौहार पर
सुहागिनों ने की परिक्रमा
पूजा अर्चना की और
अपने हाथों असीसा दरख़्त ने
दरख़्त अपने जख़्म
छुपाता रहा गाहे-बगाहे
पोंछता रहा अपने पत्तों से नम आँखें
जब क्रोध में आया तो सहस्त्रबाहु की तरह
फैला दी अपनी भुजाएं दसों-दिशाओं में
खड़ा रहा आँधियों में अडिग
दरख़्त की शाखाओं पर
पड़ोसी घर को गुमान है अपनेपन का
जब बजते हैं दरख़्त के पत्ते
छिड़ता है संगीत
और नाच उठता है पूरा मोहल्ला
दरख्त की यूं तो बहुत-सी कहानियां हैं
जिसे समय कहता रहा है
फिलवक्त इतना कहना है
कि अपने ही बीज से
अंकुरित पौध को देख
हर्षित हो रहा है दरख़्त
दादा जी दरख़्त हैं
इस घर के
घर हर्षित होता है उनसे।
(शुचि मिश्रा)
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