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लगाकर गले थोड़ा रोने दी होती,
दिल में जो बात थी, बता दी होती।
मेरी कागज की नाव जलाती नहीं,
उल्टे उसे पानी में बहा दी होती।
बहारों में है पली, इसका मुझे पता,
निगाहों से थोड़ी-सी पिला दी होती।
ख़ता कोई मेरे अकेले की नहीं,
आकर ख्वाब में जगा दी होती।
जाती तो है पगडंडियों से होकर,
कुछ पांवों के निशां भुला दी होती।
जोड़ती उन सांसों से इन सांसों को,
मोहब्बत का जलवा दिखा दी होती।
पाएगी क्या मेरे दिल का दर्द बढ़ाके,
मिटा होता दर्द जो दवा दी होती।
कोई कहो, मेरी आग को हवा न दे,
पलकों के घूँघट में सुला दी होती।
क्या लेना परियों औ हूरों से मुझको,
मगर वो झूठा दिल बहला दी होती।
तड़प रही अपनी तन्हाई पर वो भी,
पीकर अश्क़ थोड़ा मुस्कुरा दी होती।
- रामकेश एम. यादव
(कवि, साहित्यकार )मुंबई
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