नया सबेरा नेटवर्क
रोजगार का संकट मँडराने लगा है,
गांव की तरफ मजदूर लौटने लगा है।
जिस उम्मीद से वो आया था गांव से,
खाली हाथ फिर मुलुक जाने लगा है।
गम के बोझ तले नींद भी नहीं आती,
अंदर ही अंदर वो सुबकने लगा है।
जमीन बिछा लेता, फलक ओढ़ लेता,
मगर लॉकडाउन से डरने लगा है।
कंधे पर बच्चे और पीठ पर गठरी,
बेकारी के समंदर में डूबने लगा है।
नहीं है बची अब कहीं ट्रेन में जगह,
बस-ट्रक से वो प्रवास करने लगा है।
मजदूरों के दुःख को बांटेगा कौन?
चूल्हा, कोरोना बुझाने लगा है।
सूख जायेंगे धीरे -धीरे उसके आंसू,
उदासी, मायूसी से डरने लगा है।
लद गए सुकूँ से अब कमाने के दिन,
सुने कौन दर्द , दर्द बोने लगा हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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