नया सबेरा नेटवर्क
प्रकृति का विकराल रूप देख मानव दंग रह जा रहा,
जंगल, वन, वृक्षों को नष्ट करके
अपना निकेतन स्थापित करता जा रहा
संसद में बैठकर केवल ख्याली पुलाव को पकाया जा रहा
आप तो इस महामारी को रोकने का कोई सहज मार्ग नजर ना आ रहा है ।
प्रकृति की ताजगी से परिपूर्ण वायु को त्याग कर कूलर की हवा खा रहे हैं,
समय ने अपना विचार क्या बदला ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए कतार लगा रहे हैं
जल की इतनी आवश्यकता है जीवन को
तदपि लापरवाही से बहा रहे हैं
सज्जन , दुष्टजन दोनों तरह के लोग इस सृष्टि से विदाई पा रहे है।
सत्कर्म व दुष्कर्म का द्वंद्व पुरातन पीढ़ी से चला आ रहा है,
जो सत पथ पर चलने वाला है वह असहाय पीड़ा रहा है,
जो सदा गतिमान रहने वाला था वह भी स्थिर हो जा रहा है
यह तो मानो वो कहावत सच ही हो गई है–"गेहूं के साथ घुन भी पिस जा रहा है" ।
मानव अहंकार में धंसता जा रहा है,
रावण की प्रकृति को अपना रहा है
उसने एक वाटिका के लिए हनुमान की पूंछ को आग से प्रज्वलित करा दिया था
हम किस अधिकार से प्रकृति को नष्ट करते चले जा रहे हैं??
मैं श्रृंगारिक नहीं हूं जो श्रृंगार की गाथा गाऊ
मैं वीर रस का कभी नहीं जो तृण को तलवार बनाऊ
मैं ऐतिहासिक कवि भी नहीं जो किले महल का इतिहास बताऊ
मैं प्रकृति प्रेमी कवि हूं इसकी सुरक्षा के राह प्रशस्त कराऊ ।
–रितेश मौर्य
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