- आर्ट टॉक के 10वें एपिसोड में आमंत्रित चित्रकार नई दिल्ली से गोपाल सामंतराय थे।
- एक सच्चे कलाकार का रचनात्मक आग्रह ही वास्तव में एक पेंटिंग है, जो कि पोस्टर नहीं।
लखनऊ, अस्थाना आर्ट फ़ोरम के ऑनलाइन मंच पर ओपन स्पसेस आर्ट टॉक एंड स्टूडिओं विज़िट के 10वें एपिसोड का लाइव आयोजन रविवार 11 जुलाई 2021 को किया गया । इस एपिसोड में इस बार अतिथि कलाकार के रूप में नई दिल्ली के समकालीन चित्रकार गोपाल सामंतराय और इनके साथ बातचीत के लिए नई दिल्ली के क्यूरेटर एवं कला इतिहासकार विकास नंद कुमार रहे । इस कार्यक्रम में विशेष अतिथि के रूप में नई दिल्ली स्थित नींव आर्ट गैलरी के संस्थापक एवं निदेशक शाजी मैथिव ,अरुणा मैथिव शामिल हुए।
कार्यक्रम के संयोजक भूपेंद्र कुमार अस्थाना ने बताया कि गोपाल सामंतराय मूल रूप से उड़ीसा के रहने वाले हैं पिछले लगभग 15 वर्षों से समकालीन कला के क्षेत्र में निरंतर कला सृजन में लगे हुए हैं। गोपाल सामंतराय की गिनती उन कलाकारों में की जाती है जिन्होंने अपने हस्ताक्षर स्वयं विकसित किये हैं और अपनी अलग पहचान के साथ उभर रहे हैं। इनके पास अपना एक दृष्टिकोण है दृश्य को समझने के लिए और चित्रात्मक भाषा की एक अनैच्छिक समझ भी है। इनके चित्रों को समझने के लिए दर्शकों को ज्यादा संघर्ष करने की जरूरत नहीं पड़ती है। दृश्य भाषा काफी सरल है और सन्देश भी लेकिन कलाकार को इसके लिए एक लंबा समय देना पड़ा है तब जा कर एक ऐसी शैली बनी है जिसका आनंद कला प्रेमी , संग्राहक आज आसानी से ले रहे हैं। और एक ख़ास शैली को लेकर ही सामंतराय कला जगत में जाने जाते हैं। गोपाल एक सजग और सफल कलाकार हैं।
सामंतराय ने उड़ीसा से कला में स्नातक और स्नातकोत्तर किया। उसके बाद 2005 में मुंबई आ गए लेकिन मुम्बई की भाग दौड़ की ज़िंदगी से घबराहट और ऊबन के कारण एक शांत और सुकून की तलाश में साथ ही अपने कलात्मक विचारों को एक विस्तृत आयाम देने के लिए उपजाऊ भूमि की तलाश करते हुए मुम्बई की नौकरी छोड़कर दिल्ली आ गए 2006 से दिल्ली में रहते हुए अपनी शैली को विस्तार देने में लगे हुए हैं।
गोपाल का काम मुख्यतः प्रकृति से प्रेरित है जंगली जानवरों के प्रति बड़ा प्रेम है। कोरापुट,बालांगीर, काला हांडी के जंगलों में इनके कलात्मक शैली का विकास हुआ। इन जंगलो में गोपाल ने काफी समय बिताया है। प्रकृति के प्रति उनके बचपन के जुनून और पर्यावरण सम्बन्धी उनके अनुभव के साथ साथ उड़ीसा में उनके पर्यावरण संघर्ष से भी इनके काम प्रभावित हैं। बाघ, ज़ेब्रा, हाथी, गोरिल्ला या कीट पतंग या चील जैसे पक्षी गोपाल की कलात्मक दुनिया के अभिन्न अंग हैं। बंगाल के बाघ और ज़ेबरा विशेष रूप से इन्हें प्रेरित किया है। ज़ेब्रा दुनिया भर के कलाकारों का पसंदीदा जानवर बना हुआ है। इसकी दृश्य अपील सार्वभौमिक है। लेकिन विशेष रूप से महानगर जहां गोपाल इन जानवरों को खड़ा पाते हैं वहाँ रंगों और बनावट का संतुलित और कल्पनाशील उपयोग इनके कैनवास में एक चित्रात्मक शब्दावली को पूरा करता है। उदाहरण के लिए जब वह मिट्टी के फूल को स्टील में बदल देते हैं तो उसकी तकनीकी कुशलता आश्चर्य जनक परिणाम देती है। जब वह एक मखमली सोफे पर चीता को बिठाते हैं, तो दर्शको को लंबे समय तक इस छवि से घृणा होती है। इस प्रकार कलाकार ने एक मजबूत और कल्पनाशीलता हासिल की है वह रंगों के साथ विविध प्रयोगों के परिणाम है।
गोपाल के चित्र बौद्धिकता या वैचारिकता की जटिल भाषा नहीं बोलते है ,लेकिन कठिन अनुभवों और अभ्यास के बाद जिस रंग और रूप में वह आता है वह एक अलौकिक होता है। कलाकार किसी सफलता को लेकर कोई विषय अपने चित्रों के लिये नहीं चुनता, वास्तविक कलाकार केवल अपने कल्पनाशील विचारों को ही माध्यम बनाता है और उसी के अनुसार प्रयोग करता जाता है। जब कृतियां बन कर तैयार होती हैं तो दर्शक ही उस कलाकार के विचारों को सफलता का द्योतक मानती है। और आनंद का श्रेय कलाकार को देते हैं। कलाकार की अंतिम सीमा उसकी सचित्र भाषा है गोपाल सामन्त राय इस सीमा पर लगातार और साहसपूर्ण प्रयोग करते रहते हैं। कहने का भाव यह है कि एक सच्चे कलाकार का रचनात्मक आग्रह ही वास्तव में एक पेंटिंग है, जो कि पोस्टर नहीं।
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