घटाओं के बादल बरस क्यों न जाते,
नदी प्यास की तू बुझा क्यों न जाते।
तप रही ये धरा , तप रही हैं फिजाएँ,
बारिश से सूरत सजा क्यों न जाते।
परिंदों की देखो! हलक फट रही है,
उखड़ती दमों को बचा क्यों न जाते।
किसानों की आँखें तुझपे टिकी हैं,
चिंता लकीरों की मिटा क्यों न जाते।
कलियों की हालत भी अच्छी नहीं है,
मरने से पहले क्यों दवा दे न जाते।
धड़कता नहीं दिल, सुलग अब रहा है,
हक़ का समंदर पहना क्यों न जाते।
दिखता यहाँ से तू जैसे फरिश्ता,
ये कागज की कश्ती डुबो क्यों न जाते।
नहीं तन पे कोई उन पेड़ों पे पत्ती,
हरियाली की चादर ओढ़ा क्यों न जाते।
कोयल भी कुहके, बुलबुल भी चहके,
सिसकते उन होंठों को हँसा क्यों न जाते।
सजदा करेगी ये कायनात तेरी,
उदासी जहां की मिटा क्यों न जाते।
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