नया सबेरा नेटवर्क
उमड़-घुमड़कर बादल छाए,
वो सागर से पानी लाए।
सूखी धरती के होंठों की,
फिर से प्यास बुझाने आए।
पर्वत मालाओं के ऊपर,
वो अपना डेरा डालेंगे।
सारी सृष्टि नहलाकर,
झोली सबकी भर जायेंगे।
हाथों की लकीरों को वो,
कर्मों से अपने सजाते हैं।
कण -कण से प्यार उन्हें हैं,
अपनापन वो दिखाते हैं।
उनके कंधों से होकर,
सावन के झूले आते हैं।
ईद,दिवाली,होली,क्रिसमस,
बादल ही तो लाते हैं।
जड़-चेतन, पर्वत, पाठर,
सब पानी की संतानें हैं।
मेघों के आने से ही,
फसलों में सजते दानें हैं।
यदि आकर बरसे न बादल,
अन्न बिना मर जाओगे।
सूख जायेगी सारी नदिया,
पानी कहाँ से लाओगे?
काटा यदि दरख्तों को,
बादल नाराज हो जाएगा।
बूँद -बूँद पानी की खातिर,
तुमको तरसाकर मरेगा।
बेहतर होगा पेड़ लगाओ,
प्रदूषण पर बाण चलाओ।
सजा रहे अभयारण्य तेरा,
धरती को तू स्वर्ग बनाओ।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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