नया सबेरा नेटवर्क
जब देखो मन जपता रहता,
हरदम कुदरत की माला।
मिलेगी न कहीं ऐसी शांति
आओ न मेरी मधुशाला।
तेरे मन की गहराई में,
नया बीज ये बोयेगी।
जड़ है इसकी इतनी गहरी,
भर ले तू मन का प्याला।
हरे- भरे जंगल पर लेटी,
हरी -भरी इसकी काया।
आसमान के काले बादल,
सागर की लाए हाला।
छेड़छाड़ न कुदरत से कर,
देख अधर की अातुरता।
थिरक रही हैं सारी फिजाएँ,
देख ख़डी है मधुशाला।
सतरंगी सपने सजा ले,
पी ले मेरी ये कविता।
पीते वक़्त लगेगा तुझको,
पिला रही कोई सूर बाला।
निश-दिन पीता रहता भौंरा,
उन कलियों के नयनों से।
जीवन भर मस्ती में रहता,
रोग नहीं उसने पाला।
बड़े - बड़े होते थे जंगल,
नहीं काँपती थी धरती।
मां की कोख उजाड़ा जब से,
तब से आया दिन काला।
मत छलनी कर मस्त हवा को,
ये कुदरत के नाजुक अंग।
खुद के जीवन को तपाकर,
चाहे जितनी पी हाला।
वृक्ष हमारे साँसों के साथी,
ये कुदरत के हैं वरदान।
पीने वाले रोज हैं पीते,
इनके हाथों से प्याला।
पीकर नकली गाँव का ठर्रा,
जीवन नरक बना डाला।
कुदरत के फूलों में भरी है,
एक से बढ़कर एक हाला।
अंगूरी रस यदि तुम्हें चाहिए,
आओ मेरे इस मधुवन में।
स्वागत पथ में खड़ी कब से,
देखो मेरी मधुशाला।
छलक रहा यौवन-रस इनमें,
छलक रही ये मादकता।
जन्म-जन्म का संताप मिटेगा,
आ छू मेरा मधु प्याला।
हरी-हरी ये मखमली घासें,
इनके अधरों को देखो!
गर्दन इनकी सुराही के जैसी,
पी ले होंठों से प्याला।
पर्वत, पहाड़ अंग हैं इसके,
जड़ी- बूटियों महक रहीं।
चुम्बन करती विटप-लतायें,
प्रणय ये करती मधुशाला।
नदी,झील,सागर,महासागर,
पीते लहरों से हाला।
सबसे ज्यादा पीता बादल,
बनाके विद्युत का प्याला।
पल-पल रंग बदलती कुदरत,
ताजी कोई दुल्हन - सी।
अंग- अंग से टपक रही ये,
महक रही मेरी मधुशाला।
अनमोल समय ये जीवन का,
हलाहल पीने मत जाओ।
खेत -खलिहान सजे रहते हैं,
पीकर कुदरत का प्याला।
थोड़ी पीकर न प्यास बढ़ाओ,
क्षणभंगुर ये जीवन है।
काम,क्रोध,मद,लोभ मिटेगा,
आओ न मेरी मधुशाला।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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