नया सबेरा नेटवर्क
मनीषा जोशी
काश मै रबर होती तो अपनी ज़िंदगी की सारी गलतियां मिटा पाती।जो मेरे साथ हुआ उसे भुला पाती।लड़की होने के कारण समाज ने जो कुछ भी गलत किया उसे मिटा पाती।ज़िन्दगी को झंझोर कर रख देनेवाली घटनाएं हमेशा याद आते ही दर्द देते है उन दर्दभरी यादों को मिटा पाती।काश मै रबर होती तो थोड़ा और नए से इसे लिख पाती।खुद को सचेत कर पाती गलतियों के पहले रबर बनकर ही न।रबर की जरूरत असलियत में उन मासूम बच्चो को नहीं हम बड़े लोगो को ज्यादा हैं।ज़िन्दगी की गलतियां तो बस लगता है, एक पेन सा वादा है जिसे कभी मिटा नहीं सकते।पेंसिल तो मुझसे भी खुदकिस्मत की गलतियां करके मिटा तो सकती है।आखिरकार हम इंसान है ज्यादा से ज्यादा भुला सकते है, भूलो को किन्तु मिटा नहीं सकते।मुझे भी लोगो की मदद करनेवाला वहीं रबर बनना हैं। यहां संसार में जीना आसान नहीं गम में भी हंसकर जीना पड़ता हैं।इसलिए यदि भगवान मुझसे मेरी एक इक्छा पूरी करने को कहे तो कह दूंगी मुझे रबर बना दीजिए। इस ज़िन्दगी को आसान बना दीजिए।जिससे मै इंसानों में भरे इस घृणा ,भेदभाव,द्वेष को मिटा सकू।अब और इंतहान नहीं दिया जाता मुझसे काश मैं भी अपनी कापी रखती जिसपर गलतियों को लिखते ही मिटा देती।क्यों मेरे भगवान मुझसे पूछते नहीं की क्या चाहती हो बोलो मैं झट से बोल देती एक छोटी सी तो इक्छा है रबर बना दो मुझे।ये दुनिया कुछ ख़ास नहीं भांति मुझे, वो सुकून वाली दुनिया दे दो मुझे।क्या मै खुलकर कभी खुद के लिए भी जी पाऊंगी?क्या मैं भी पेंसिल की तरह कभी साथी पा पाऊंगी? क्या मैं भी कभी रबर बन पाऊंगी? लोगो को एक नया अध्याय सीखा पाती। रबर बनकर ही मै पेंसिल सा साथ निभा पाती। झुठ ,अन्याय को दूर करके कुछ लग कर पाती।फिर भी क्यों नहीं मै रबर बन पाती?यही सोचते - सोचते रोज़ शाम गुज़र जाती।की काश मैं भी रबर बन पाती।मेरे माता - पिता तथा दुनिया के सारे माता - पिता के लिए श्रवण बन पाती।यदि मा - पिता दुखी होते तभी मै रबर बन जाती।जीना नहीं छोड़ सकती भगवान की इस खूबसूरत दुनिया में।लेकिन क्या दरिंदे जीने देंगे मुझे एक परिंदे कि तरह समाज में।रोज़ मर्रा के इस अशांति से तो वो कोरा कागज ही अच्छा है।जो कुछ लिखा न होकर भी सुकून से जीता तो है।कौन कहता है, कि हमारी ज़िन्दगी आसान है हर इंसान यहां कुछ न कुछ गम पिता तो हैं।पेंसिल जितनी भाग्यशाली नहीं मै बस रबर जितनी मददगार बनना चाहती हूं।काश मै रबर बन पाती।
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