नया सबेरा नेटवर्क
-झील की बहुमंजिली इमारत में चलता है चकला
- हर महीने पड़ता है छापा, बढ़ जाती है हफ्ते की रकम
जौनपुर। कहावत है रकम जैसे और जिस रफ़्तार से आती है, उसी तरह जाती भी है। बस अंतर केवल इतना है कि आने पर चेहरा रौनक से लबरेज होता है और खुद की ही नहीं बल्कि दूसरी पीढ़ी ऐसी बिगड़ती है कि सारी कमाई और इज्ज़त की धज्जी उड़ जाती है। वर्ष 1956 में झील के लिए विनियमित क्षेत्र से कालांतर में जो बाईपास निकला वह पालीटेक्निक चौराहे से पूरब की ओर जब घूमा और वाजिदपुर तिराहे से उत्तर की ओर गोरखपुर यानी लुम्बिनी के लिए बढ़ा तो बाज़ नज़र लगाए भू- माफिया झील में कूद पड़े। इसी वाजिदपुर तिराहे के पास एक बहुमंजिली इमारत बनी। यदि इसका नक्शा पास होता तो प्रशासन के कारिंदे हर महीने हफ्ता न वसूलते। इस इमारत में तमाम दुकानें किराए पर हैं फिर भी मरम्मत का खर्च नहीं निकल पाता होगा तभी तो यहां सुबह 10 बजे से रात आठ बजे तक तमाम कमरों में चकला चलता है।
हालांकि यह धंधा शहर के तमाम होटलों में भी होता है, इसका कोड है चद्दर बदल कार्यक्रम। अधिकतर होटलों में छापे पड़ना आम बात है। बात हो रही झील की उस बहुमंजिली इमारत की जहां हर महीने छापे पड़ते हैं लेकिन पकड़ा कोई नहीं जाता। कारण, सेटेलमेंट। एक धनपशु का राजदुलारा पकड़ा गया तो छोड़ने की कीमत लाखों में होती है। ऐसा कई बार हो चुका है। सिलसिला जारी है। उस भवन को गिराने की वैधानिक किन्तु मौखिक धमकी मिलते ही मोटी रकम साहबों तक पहुंच जाती है। उसके चिल्लर से कथित मीडिया वालों का मुंह बंद कर दिया जाता है। झील में नाला मास्टर प्लान विभाग या प्रशासन नहीं बल्कि भू-माफ़िया निकलते जा रहे हैं यही हाल रहा तो नाला का भूगोल भी नाली में तब्दील हो जाएगा। अब भी यदि प्रशासन चेत जाए तो दो-चार बीघे की झील बच सकती है और इसे आम जनता के लिए पिकनिक स्पॉट बनाया जा सकता है लेकिन अधिकारियों को चन्दौली के डीएम संजीव सिंह सरीखे जिगर रखना होगा। अन्यथा भू- माफ़िया तो लगे ही हैं। उनके पास चुटकी बैनामा से मालिकाना हक़ भी है । ये अलग बात है कि किसी भवन का नक्शा नहीं पास है। क्रमशः
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