नया सबेरा नेटवर्क
जिस पर पड़ता वह ही सहता,
वही समझता गहरी पीर ।
कायर चीख - पुकार मचाते,
मौन व्यथा पी जाते धीर।।
नहीं चीखता चिल्लाता जो,
अर्थ नहीं वह पीड़ा - हीन।
उसके दिल में भी उठती है,
पीर निरन्तर गहरी पीन।।
कुछ निर्दय पर-तड़पन लख कर,
करते मधुर - मधुर उपहास ।
घायल उर पर लेप लगाना -
आता उन्हें न रंचक रास ।।
ऐसे कुटिल कलहप्रिय कामी,
पर-दुःख समझा करते खेल।
जल की जगह, आग में जलती,
डाला करते घी खर तेल।।
घायल की पीड़ा का अनुभव घायल दिल ही करता है।
स्वार्थी स्वार्थ - रोटियां उस पर सदा सेकता रहता है।
डाॅ मिथिलेश कुमार त्रिपाठी
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