मूर्खता इतनी पूजित
कभी न थी
विवेक इतना डरा
कभी न था
जड़ता पहले भी स्थिर थी
पर स्थापित अब हुई
मसि काग़द छूयो नहीं
पहले विनम्रता थी
अब अहंकार है
अनपढ़ विद्वानों का
मूढ़ टिड्डीदल चाटे जा रहा
संस्कृति की फ़सल
करुणा के शिल्प
उदारता के विग्रह
उखाड़कर
थोपे जा रहे
थापे जा रहे
क्रूरता के कुलिश कठोर
अनगढ़ पाषाण
विज्ञान और वैज्ञानिकता
रसातल जा पहुँची
सामान्य ज्ञान का
भीषण अकाल चहुँ ओर
सत्य इतना कड़वा
और झूठ इतना नशीला
कभी न था
धर्म में अधर्म की मिलावट
इतनी अधिक
कि धर्म ही नदारद
राजनीति में इतनी मिली
बेहयाई कि शर्म ही नदारद
मुफ़्तख़ोरी का जलाल ऐसा
कि कर्म ही नदारद
कलिकाल की ऐसी कल्पना तो
बाबा तुलसी ने भी नहीं की
समय समाज सभ्यता
की निर्लज्जता
महामारी को भी मात दे
कवि की कल्पना से परे
ईश्वर इतना असहाय
और सत्ता इतनी सशक्त
प्रजा इतनी अशक्त
वायरस की तरह पसरे भक्त
बुद्धिजीवी विरक्त
भाषा इतनी हिंसक
भाव इतने निरर्थक
अभाव की बढ़ती खाइयाँ
नेकी की रुसवाइयाँ
बदी की परछाइयाँ
इतनी स्याह इतनी गहरी न थीं
मानव जाति के इतिहास में
पहली बार हुआ
नीचता ने उच्चांक
पहली बार छुआ
मौजूदा समय की
सबसे बड़ी गाली
सद्भावना सहिष्णुता
सबसे बड़ा अभिशाप
धर्मनिरपेक्षता
और सबसे बड़ा ख़तरा
विचारों की स्वतंत्रता है
ऐसे मूढ़ समय में
प्रत्येक बुद्धिमान
विचार बचाने की बजाय
सिर बचाने में लगा है
यही तो समय के साथ
सबसे बड़ी दग़ा है
-हूबनाथ
प्रोफेसर, मुंबई विश्वविद्यालय
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