समान आचार संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून से महिला अधिकारों का सशक्तिकरण - एड किशन भावनानी
नया सबेरा नेटवर्क
गोंदिया - भारतीय बहुलवादी संस्कृति में महिला अधिकारों को वरीयता देने प्रत्येक धर्म और संस्थान का कर्तव्य है।...साथियों भारत में धार्मिकता, रूढ़िवादिता, प्रथाएं, हर जाति और धर्म के अलग-अलग कानूनों के कारण देश में विषमता स्थिति पैदा हो गई है। खास करके कुछ बिंदु ऐसे हैं जिन पर विशेषकर महिलाओं को सशक्तिकरण केलिए उपरोक्त दोनों कानूनों को लाना समय की मांग और आवश्यकता है। वह बिंदु हैं, विवाह, तलाक,अडॉप्शन इन्हेरिटेंस, सकसेशन और बहुविवाह इत्यादि बिंदु हैं। इनमें तकनीकी स्तरपर खामी तब उत्पन्न होती है, जब अंतर्जातीय या अंतरधार्मिक विवाह होता है। हमने कई बार सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट की अनेक जजमेंटों में यूसीसी को बनाने की आवश्यकता संबंधी टिप्पणियां भी सुने हैं जिसका भारतीय संविधान में अनुच्छेद 44 का उल्लेख कर कहा जाता है कि इसके तहत भारतमें समान आचार संहिता लागू करने की ओर कदम बढ़ाया जाए। हालांकि यूसीसी को कई इस्लामिक देशों ने भी अपनाया है, जैसे पाकिस्तान, टर्की जॉर्डन, बांग्लादेश, सीरिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, इत्यादि देशों ने अपनाया हैं और कई विकसित देशों जैसे अमेरिका, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, यूके, सहित अन्य देशों ने भी अपनाया है। हालांकि यूसीसी का विषय विधि आयोग के पास भी गया है। साथियों....भारत में अधिकतर व्यक्तिगत कानून धर्म के आधार पर तय किये गए हैं। हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध धर्मों के व्यक्तिगत कानून हिंदू विधि से संचालित किये आते हैं, वहीं मुस्लिम तथा ईसाई धर्मों के अपने अलग व्यक्तिगत कानून हैं। मुस्लिमों का कानून शरीअत पर आधारित है, जबकि अन्य धार्मिक समुदायों के व्यक्तिगत कानून भारतीय संसद द्वारा बनाए गए कानून पर आधारित हैं। अब तक गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ पर समान नागरिक संहिता लागू है...। साथियों मेरा यह निजी विचार है कि जब तक हम सभ सर्वधर्म,सर्व सम्मति, सर्वविचारधारा के साथ आपस में मिलकर एक सकारात्मक सोच रख कर काम आगे बढ़ाएंगे तो हमें इस इन दोनों कानूनों को के रूप में एक अनुकूल रिजल्ट ज़रूर सामने मिलेगा। यदि हम इसमें विषमता, विसंगतियां, डर और राजनीति की संभावना तलाश करेंगे तो यह मैटर लंबा खींच सकता है...। साथियों बात अगर हम यूसीसी की करें तो यह मुद्दा शुक्रवार दिनांक 9 जुलाई 2021 को फिर इसीलिए उठा क्योंकि माननीय दिल्ली हाईकोर्ट की एक जजमेंट जो दिनांक 7 जुलाई 2021 को माननीय सिंगल बेंच न्यायमूर्ति ने अपने 27 पृष्ठों में दिया उसमें कहा, कि एक यूनिफॉर्म सिविल कोड विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि जैसे पहलुओं के संबंध में समान सिद्धांतों को लागू करने में सक्षम होगा, ताकि तय सिद्धांतों, सुरक्षा उपायों और प्रक्रियाओं को निर्धारित किया जा सके और नागरिकों को संघर्ष करने के लिए मजबूर न किया जाए। विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों में संघर्ष और अंतर्विरोध हैं। इसमें यह भी निर्देश दिया कि अपने फैसले को कानून और न्याय मंत्रालय के सचिव को आवश्यक कार्रवाई के लिए जैसा उचित समझा जाए के लिए सूचित किया जाए। फैसले में कहा गया है कि आज की युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों से जूझना न पड़े इस लिहाज से देश मे यूनिफार्म सिविल कोड लागू होना चाहिए। आर्टिकल 44 में यूनिफार्म सिविल कोड की जो उम्मीद जतायी गयी थी,अब उसे केवल उम्मीद नहीं रहना चाहिए बल्कि उसे हकीकत में बदल देना चाहिए...। बता दें कि एक तलाक के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने ये टिपणी की। दरअसल, कोर्ट के सामने ये सवाल खड़ा हो गया था कि तलाक को हिंदू मैरिज एक्ट के मुताबिक माना जाए या फिर मीणा जनजाति के नियम के मुताबिक बेंच ने अपने फैसले में कहा कि आज का हिंदुस्तान धर्म, जाति, कम्युनिटी से ऊपर उठ चुका है। आधुनिक भारत में धर्म, जाति की बाधाएं तेजी से टूट रही हैं। तेजी से हो रहे इस बदलाव की वजह से अंतरधार्मिक और अंतर्जातीय विवाह या फिर विच्छेद यानी डाइवोर्स में दिक्कत भी आ रही है। फैसले में कहा गया है कि आज की युवा पीढ़ी को इन दिक्कतों से जूझना न पड़े इस लिहाज से देश मे यूनिफार्म सिविल कोड लागू होना चाहिए। आर्टिकल 44 में यूनिफार्म सिविल कोड की जो उम्मीद जतायी गयी थी, अब उसे केवल उम्मीद नही रहना चाहिए बल्कि उसे हकीकत में बदल देना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने 1985 में निर्देश दिया था कि उचित कदम उठाने के लिए सुश्री जॉर्डन डिएंगदेह के फैसले को कानून मंत्रालय के समक्ष रखा जाए। हालांकि, तब से तीन दशक से अधिक समय बीत चुका है और यह स्पष्ट नहीं है कि इस संबंध में अब तक क्या कदम उठाए गए हैं, बेंच ने फैसले में कहा। बेंच ने मीना समुदाय के एक जोड़े के संबंध में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की प्रयोज्यता पर सवाल उठाते हुए एक याचिका में यह टिप्पणी की।भलेही पार्टियों द्वारा यह स्वीकार किया गया था कि शादी हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुई थी, पत्नी ने अपने पति द्वारा दायर तलाक की याचिका के जवाब में तर्क दिया था कि अधिनियम उन पर लागू नहीं होता क्योंकि वे एक अधिसूचित, अनुसूचित जनजाति के सदस्य हैं। राजस्थान और इस प्रकार वे अधिनियम की धारा 2(2) के तहत अपवर्जन के दायरे में आते हैं। ट्रायल कोर्ट ने महिला की दलील से सहमति जताई और उसके पति द्वारा तलाक के लिए दायर याचिका को सरसरी तौर पर खारिज कर दिया। हालांकि, बेंच ने फैसले में कहा कि शादी हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार हुई थी और बहिष्कार का प्रावधान केवल मान्यता प्राप्त जनजातियों की प्रथागत प्रथाओं की रक्षा के लिए है। यदि एक जनजाति के सदस्य स्वेच्छा से हिंदू रीति -रिवाजों, परंपराओं और संस्कारों का पालन करना चुनते हैं, तो उन्हें एचएमए, 1955 के प्रावधानों के दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता है।...साथियों बात अगर हम जनसंख्या नियंत्रण कानून की करें तो यूपी राज्य विधि आयोग ने नई जनसंख्यानीति 2021-2030 का मसौदा पेश कर दिया है। जिसकी पिछली अवधि समाप्त हो रही है।ड्राफ्ट को वेबसाइट पर डाल दिया गया है तथा 19 जुलाई तक सुझाव मांगे गए हैं ऐसी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और टीवी चैनल द्वारा दी गई है।...साथियों मेरा ऐसा मानना है कि जिसका पहिया यूपी में पड़ा है जिसे घूम कर सारे राज्यों और केंद्र सरकार को भी यूपी मॉडल को अपनाना चाहिए। समाज की प्रगति और सौहार्द्रता हेतु उस समाज में विद्यमान सभी पक्षों के बीच समानता का भाव होना अत्यंत आवश्यक है। इसलिये अपेक्षा की जाती है कि बदलती परिस्थितियों के मद्देनज़र समाज की संरचना में परिवर्तन होना चाहिये। अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम यह देखेंगे कि भारत में समान आचार संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून लाना समय की मांग है जिसके कारण महिला अधिकारों को अधिकतम वरीयता मिलेगी। प्रत्येक धर्म और संस्था का कर्तव्य भी है कि समान आचार संहिता और जनसंख्या नियंत्रण कानून के बल पर महिला अधिकारों को और अधिक शक्ति करने की ओर कदम बढ़ाने होंगे।
-संकलनकर्ता कर विशेषज्ञ एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
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