नया सबेरा नेटवर्क
गिरकर उठने में वक़्त लगता है,
तूफ़ाँ जाने में वक़्त लगता है।
आया है कोरोना जाएगा ही,
उसके खात्मे में वक़्त लगता है।
ख्वाब बिछा लो छत पे जितना,
सुकूँ से सोने में वक़्त लगता है।
सजा लो मन में वो ताजमहल,
ताज बनाओ तो वक़्त लगता है।
पिलाई कल ऐसी आँखों से जाम,
उसे उतरने में वक़्त लगता है।
मत काटो वृक्षों को दुनियावालों,
उसे पनपने में वक़्त लगता है।
हालात देख वह रोईं है बहुत,
आंसू सूखने में वक़्त लगता है।
दहशत में है आज पूरी दुनिया,
अमन बिछाने में वक़्त लगता है।
परजीवी तो खून ही चूसते हैं,
सादगी आने में वक़्त लगता है।
शाम अभी हुई, रात फिर होगी,
सहर होने में वक़्त लगता है।
छूने से उसे जिस्म मेरा जी उठता,
अपना बनाने में वक़्त लगता है।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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